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Channel: my dreams 'n' expressions.....याने मेरे दिल से सीधा कनेक्शन.....
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झील

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गुनगुना रही थी झील
एक बंदिश राग भैरवी की
कि पानी में झलक रहा था अक्स
उसके ललाट की बिंदी का |

उसके डूबे हुए तलवों ने
पवित्र कर दिया था पानी
कि घुल रही थी पायलों की चांदी
धीरे धीरे.....

झील की सतह पर
उँगलियों से अपनी
वो लिखती रही
प्रेम !!

पढ़ा था झील ने ,
और उसको
फ़रिश्ता करार दिया |

~अनुलता~


याद गुज़री.......

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सरसराती ,फन उठाती
बिन बुलाये ,
अनचाही  एक
याद गुज़री.....
जाने कब की
बीती बितायी
बासी पड़ी
एक बात गुज़री...
ले गयी वो
चैन मन का
आंसुओं में
रात गुज़री.....

भीगे भीगे ख्वाब सारे
भीगे थे हर सू नज़ारे
बादलों में भीगती
बारात गुज़री.....
महके गुलाबी
कागजों में
झूठी एक
सौगात गुज़री....

बंद करके
रख दिए थे
मैंने माज़ी के दरीचे
सेंध करके
छुप-छुपाती
याद वो बलात गुज़री....
सच का चेहरा
मुझको दिखाती
आइना ले साथ गुज़री !

सरसराती फनफनाती
विष भरी
एक याद गुज़री...............

~अनुलता~




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निरर्थक है
लिखा जाना
प्रेम कविताओं का  |
कि जो लिखते हैं
उन्होंने भोगा नहीं होता प्रेम !
और जो भोगते हैं
उन्हें व्यर्थ लगता है
उसे यूँ
व्यक्त करना....

मनगढ़ंत किस्से,
काल्पनिक बातें
और कोरी बयानबाजियां हैं
प्रेम कवितायें |

प्रेमी नहीं करते बातें
चाँद तारों की
नदी पहाड़ों की
लहरों किनारों की या
झड़ते चनारों की.....

प्रेमी नहीं करते बातें
ऐसी -वैसी
कैसी भी !

वे नहीं करते प्रेम से इतर
कुछ भी....

~अनुलता ~

मेरा पहला काव्य संग्रह....."इश्क़ तुम्हें हो जाएगा "

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आप सभी के स्नेह और आशीर्वाद से मेरा पहला काव्य संग्रह प्रकाशित हो गया है....
                                        ~ "इश्क़ तुम्हें हो जाएगा "~
बड़े अरमानों से ये पहला कदम बढ़ाया है......आप सभी के स्नेह और आशीर्वाद के आकांक्षी हूँ...
अगर आप मेरी लिखी कवितायें पढ़ना चाहें तो दिए लिंक पर click करके किताब अपने घर मंगवा सकते हैं !

दिल से शुक्रिया !!
अनुलता
 http://www.infibeam.com/Books/ishq-tumhen-ho-jayega-hindi-anulata-raj-nair/9789381394861.html?utm_term=anulata_1_2






http://www.infibeam.com/Books/ishq-tumhen-ho-jayega-hindi-anulata-raj-nair/9789381394861.html?utm_term=anulata_1_2


दीदी की ईदी .......................

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आप सभी को ईद मुबारक.....

साथ ही एक तोहफ़ा, मेरी तरफ से ईदी :-)
सुनिए मेरी लिखी कहानी "दीदी की ईदी"नीलेश मिश्रा की ज़बानी ! 92.7 big fm यादों का इडियट बॉक्स में.

बस इस लिंक पर क्लिक करें.....

https://www.youtube.com/watch?v=SRh9qcmgV7g&list=PLRknjC5MPHa0ORz6ublg_ll9OciXprAjA&index=1








दीदी की ईदी  

नाज़ , नगमा, और आलिया के बाद पैदा हुआ था अनवार | ज़ाहिर है , वो सबकी आँखों का तारा था | माँ - बाप के अलावा बहनों का भी लाड़ला था वो , याने पूरे घर का केंद्र बिंदु |
अनवार की अम्मी को उसके अब्बा गाँव से ब्याह कर लाये थे | उन्होंने किसी स्कूल या मदरसे का कभी मुँह तक नहीं देखा था मगर देखने में बड़ी खूबसूरत थीं सो स्कूल मास्टर कुरैशी साहब को उन्हें घर लाकर कोई अफ़सोस न था | यूँ भी उनकी दकियानूसी सोच के हिसाब से पूरी तरह फिट थीं उनकी बेग़म | याने परदे में रहकर पूरी उम्र काट देना और कभी किसी बात पर अपनी राय न देना |
क़ुरैशी साहब यूँ तो क़स्बे के मिडिल स्कूल में मास्टर थे मगर मोहल्ले के तकरीबन सारे बच्चे उनसे ट्यूशन पढ़ने आते थे सो उनका गुज़ारा किसी तरह चल जाता था | महीने की आखिर में खींचतान होने पर थोड़ा बहुत उधारी करके उनका सात लोगों का परिवार किसी तरह चल रहा था |
बच्चियाँ जब तक छोटी थीं तब तक तो कोई ख़ास दिक्कत नहीं हुई मगर उनके बड़े होने के बाद उनके कपड़े – लत्ते , चूड़ियाँ , दुपट्टे वगैरह की माँग मास्साब को तोड़ डालती थी |
बच्चियों को उन्होंने कभी स्कूल नहीं भेजा | इसकी दो वजहें थीं.....एक तो हाथ तंग और दूसरे तंग मानसिकता | स्कूल में बेशक वे स्त्री शिक्षा और उनकी आज़ादी से जुड़े कार्यक्रमों में धड़ल्ले से बोलते मगर अपनी खुद की ज़िन्दगी में उनके अलग कायदे, अलग ही नियम कानून थे | याने “औरों को नसीहत खुद मियां फजीहत ” वाला सिद्धांत था उनका |
तीनों बच्चियाँ तकरीबन दो-दो बरस के अंतर से पैदा हुई होंगी | मास्साब के मन में बेटे की बड़ी लालसा थी और ये इच्छा इतनी प्रबल थी कि छः बरस में एक के बाद एक तीनों लड़कियों ने जन्म ले लिया | चौथी बार बच्चा बीवी के गर्भ में ही मर गया और दाई ने बताया कि लड़का था , तब तो कुरैशी साहब का दिमाग ही घूम गया | जब पाँचवी बार बीवी उम्मीद से हुईं तो क़ुरैशी साहब ने उनकी देखभाल में कोई कसर न छोड़ी | निकाह के बाद पहली बार बीवी को तरह तरह के मेवे, मिठाई ,फल-फूल और दूध मलाई नसीब हुए | वे उनका बड़ा ख़याल रखते जिससे जच्चा- बच्चा स्वस्थ रहें |
पूरे नौ महीने वे हर जुमे याने शुक्रवार को पास की दरगाह पर चादर चढ़ाने जाते | पाँचों वक्त की नमाज़ पढ़ते | और जाने कहाँ कहाँ मन्नत के धागे बाँध आये थे |
खैर अल्लाह ने उनकी सुन ली और घर में अनवार का आगमन हुआ | क़ुरैशी साहब बेहद खुश थे और बेटे की वजह से बीवी का सम्मान बढ़ गया था सो वो भी खुश थीं | घर का माहौल अच्छा था, खाने को मिठाइयाँ थीं इसलिए बच्चियाँ भी खुश थीं |

अम्मी को घर के काम काज से फुर्सत मिलती नहीं थी इसलिए अनवार की परवरिश का ज़िम्मा बहनों के सर था | ये अलग बात है कि उसको पालने में वे अपना बचपन भूल चुकी थीं | अनवार के खिलौने,लड़कियों के खिलौने थे , अनवार की हंसी , लड़कियों की खुशी थी | अपना बचपन वो भाई के बचपन पर न्योछावर कर चुकीं थीं | और ये कुर्बानी उनके स्वभाव में थी क्यूंकि पीढ़ियों से लड़कियों के भीतर कूट कूट कर यही नसीहत तो भरी जा रही है | ये वो आँखें थीं जिन्हें दो रोटियाँ खाकर नींद तो नसीब हो जाती थी मगर ख़्वाबों की इजाज़त नहीं थी |
हाँ एक बात ज़रूर लड़कियों के हक़ में थी कि भले वे स्कूल न जाती हों मगर कुरआन शरीफ़ की तालीम उन्हें बाकायदा दी जा रही थी | हर शाम मौलाना साहब आते और लड़कियों को कुरआन की आयतें पढ़ाते | बड़ी दोनों लड़कियाँ तो सिर्फ रस्म अदायगी के लिए पढ़ती थीं मगर आलिया एक एक शब्द गौर से पढ़ती, उनके अर्थ समझती | इसीलिये वो मौलाना साहब को बहुत प्रिय भी थी | वो पढ़ते पढ़ते लिखना भी सीखने लगी थी |
उसकी लगन देख कर एक बार क़ुरैशी साहब की बीवी ने उनसे गुज़ारिश भी की थी कि - बच्चियों को क्यूँ न हम पास के गर्ल्स स्कूल में पढने भेज दें | ख़ासतौर से आलिया का तो बहुत ज्यादा रुझान है पढने लिखने में | मौलाना साहब भी कह रहे थे – “बड़ी होशियार बच्ची है ” |
क्या फ़िज़ूल की बातें करती हो बीवी , क़ुरैशी साहब भड़क गए | लड़कियाँ परदे में रहें वही अच्छा है | पढ़ना लिखना उनके हक़ में नहीं |
बीवी ने फिर कोशिश की....
“बड़े शहरों में तो गरीब से गरीब भी अपनी बच्चियों को पढ़ा रहे हैं फिर वो चाहे किसी भी धर्म के हों | ज़माना बदल गया है अब....”
हाँ ज़माना बदल गया है...तभी तो....क़ुरैशी साहब भुनभुनाये |
कितने हादसे होने लगे हैं दिन दहाड़े, औरतों की आज़ादी की आड़ में कितने अपराध जन्में हैं तुम्हें क्या पता....अखबार भरे होते हैं रोज़ ऐसी खौफ़नाक ख़बरों से | तुम पढो तो जानो !
कैसे पढूं ? – पढ़ी लिखी होती तब ना जानती समझती दुनियादारी की बातें ...बीवी ने आह भरते हुए कहा...
हाँ हाँ ठीक है अब बहस न बढ़ा | तीन तीन लड़कियों की माँ हो , तुझे तो शुक्र अदा करना चाहिए कि लड़कियाँ देहरी के भीतर हैं वरना तेरा ही चैन हराम रहता |
अब्बा की दलीलें और अम्मी के पस्त हौसले देख लड़कियाँ भी भीतर जाकर दुबक गयीं और साथ ही कहीं दुबक कर सो गए उनके ख्वाब भी, उनकी उम्मीदें भी |
बीवी उदास हो गयी थी | सारी ज़िन्दगी में पहली बार उन्हें खुद के अनपढ़ होने का दुःख हुआ |

तीनों बहनें अपनी माँ की छाया में बड़ी हो रही थीं | उन्हें शिक्षा की कीमत भले न समझाई गयी मगर पैसे की कीमत वे खूब समझती थीं | माँ उन्हें घर के काम काज के अलावा कशीदाकारी, क्रोशिये का काम, सिलाई वगैरह भी सिखाती रहीं |
तीनों बहनों में आलिया अक्सर इन कामों से जी चुराती और भीतर कमरे में जाकर कोई किताब पढ़ती रहती | कुछ नहीं तो अखबार के पन्नों से ही अक्षरों को समझती और उनकी नक़ल कॉपी में उतारती | वो खुद ही अपनी गुरु बन गयी थी | ये काम वो अपने अब्बा से छुप कर ही करती थी , हाँ माँ और बहनें जरूर देख कर भी अनदेखा कर देती थीं |
आलिया की उम्र की सभी लड़कियों ने स्कूल जाना शुरू कर दिया था | सिर्फ वो लड़कियाँ ही घर बैठी थीं जिन्हें पढने का मन ही नहीं था | एक आलिया ही अपवाद थी , जो पढ़ना चाह कर भी घर बैठी थी |
अनवार अब छः सात बरस का हो गया था और उसको स्कूल भेजने की तैयारियाँ घर में हो रही थी | हालाँकि स्कूल जाने की उम्र तो चार साल होती है मगर अब्बा के हिसाब से अनवार छोटे थे और मासूम भी इसलिए उनकी पढ़ाई शुरू करने के लिए सात बरस की उम्र तय की गयी |
खैर पास के प्राइवेट स्कूल में उसका दाख़िला करवाया गया | उसके लिए नया बस्ता, कम्पास बॉक्स ,लंच बॉक्स , कपड़े और किताबें लाई गयीं |
अनवार मचल रहा था कि उसे स्कूल नहीं जाना और उधर आलिया का मन मचल रहा था स्कूल जाने को | आलिया अब नौ बरस की थी और वो जानती थी कि उसे स्कूल नहीं भेजा जायगा...कभी नहीं | जबकि कायदे से उसे अब दूसरी या तीसरी कक्षा में होना चाहिए था | उसकी बड़ी बहनों ने तो पिता के इस पक्षपात को स्वीकार लिया था मगर आलिया का मन मानता ही नहीं था |
भाई का रोना सुनकर उसने हुलस कर अपने पिता से कहा ....
“अब्बा अनवार न जाना चाहे तो मत जाने दो...उसकी जगह मुझे भेज दो न स्कूल | मैं बड़ी होकर टीचर बनूंगी फिर पढ़ा दूंगी अनवार को , और हाँ अम्मी को और नाज़ और नगमा बाजी को भी “ !
वो उनका कुरता पकड़ कर लगभग लटक ही गयी |
पिता ने झिड़क कर उसे अलग किया....”फ़ालतू बकवास न कर......जाओ जाकर मना कर ले आओ अपने भाई को...वैसे भी वो तुमसे हिला हुआ है सबसे ज्यादा , तुम्हारी बात मान जाएगा.....हाँ , उसे टॉफियों और आइसक्रीम का लालच भी दे देना , तब तो रोना ज़रूर बंद हो जाएगा...”
पिता ने नेताओं की तरह  मुस्कुराते हुए कहा | बुझा सा मन लेकर आलिया चल दी भाई को मनाने |
मुझे नहीं जाना स्कूल....आलिया को देख अनवार और भी मचल गया |
इत्ता शौक है तो तुम खुद क्यूँ नहीं चली जातीं, उसने चिढ़ते हुआ आलिया से कहा |
अब्बा के लाडले तो तुम हो छोटे मियाँ......सारी मेहरबानियाँ तुम पर ही तो हैं - आलिया ने हँसते हुए कहा और भाई को यूनिफार्म पहनाने लगी |
मासूम अनवार अपनी बहन की हँसी में छुपी उदासी कहाँ पढ़ पाया.....

ऐसे ही रोज़ न जाने कितनी मासूम बच्चियों के दिल टूटते हैं और उनकी आवाज़ें वहीं घरों के भीतर, पर्दों के पीछे दब के रह जाती है | ज़माना बदल गया है....देश तरक्की कर रहा है मगर क़ुरैशी साहब की तरह कुछ लोग अब भी वही के वहीं हैं, उन्हीं मान्यताओं से जकड़े , वही लकीर के फ़कीर.......

अनवार अब रोज़ स्कूल जाने लगा था | अब्बा बड़ी शान से उसे अपनी खटारा स्कूटर पर बैठा कर स्कूल छोड़ने जाते , और बुझे मन से लौटते | मानों किसी सैनिक को सरहद पर छोड़ आये हों दुश्मनों की सेना के आगे | खैर ये उनका स्नेह था अपने इकलौते लाडले बेटे के प्रति और इस पर किसी को ऐतराज़ न था |
हाँ उसे स्कूल से वापस लाने का काम बहनों का था और ये ज़िम्मेदारी आलिया ने बाखुशी उठा ली थी | वो रोज़ घंटा भर पहले ही स्कूल पहुँच जाती और अनवार की कक्षा के बाहर कान लगा कर बैठ जाती | बड़े ध्यान से वो टीचर की हर बात सुनती , कई बार सवाल पूछे जाने पर वो खुद भी हाथ उठा देती फिर खुद ही शरमा जाती | वाकई बड़ी तेज़ बुद्धि थी उसकी या पढ़ने की चाह ने उसको इतना अक्लमंद बना दिया था |
घर पहुँचते ही वो भाई का बस्ता खोल कर बैठ जाती और जो दिन भर जो कुछ भी टीचर ने पढाया होता उसको अपनी कॉपी में नोट करती | कुछ समझ नहीं आता तो अनवार से पूछ लेती | अनवार को भी अपनी बहन को समझाने में मज़ा आता |
अनवार तुम स्कूल में रोज़ ‘जनगणमन ’ गाते हो ? आलिया उत्सुकता से पूछती !
हाँ रोज़.....ये हमारा नेशनल एंथम है ! इसे रबिन्द्रनाथ टैगोर जी ने लिखा है , अनवार ने अपनी बहन का ज्ञान बढाते हुए कहा |
आलिया उसकी कॉपी के पन्ने पलटती रहती, जो मन को भाता वो पढ़ती......
“खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी.....” कितनी अच्छी कविता है न भाई ? आलिया अपने भाई से पूछने लगी !
“ हाँ बहुत अच्छी है , और जानते हैं अब्बा -  वो कविता एक लड़की ने लिखी है – ‘सुभद्रा कुमारी चौहान ने’! – अनवार ने मासूमियत से अपने अब्बा से कहा |
“देखना ये भी लिखेगी बड़ी होकर !” अनवार हँसते हुए आलिया की चोटी खींच के भाग गया |
अब्बा अनमने होकर वहां से उठकर चले गए |

कभी कभार जब मन न होता तो आलिया ही उसका होमवर्क भी कर देती | याने इस तरह अनवार के साथ साथ आलिया की पढ़ाई भी चुपके चुपके चलने लगी |
रोज़ रोज़ स्कूल जाने से स्कूल की कई टीचर्स आलिया को पहचानने लगी थीं | इस तरह 2-3 बरस में आलिया पूरी तरह साक्षर ही नहीं बल्कि बहुत समझदार हो चुकी थी | वो अखबार का लगभग हर पन्ना पढ़ डालती जिससे उसका सामान्य ज्ञान भी बहुत अच्छा हो गया था | वो अनवार को निबंध ,कवितायें  और छोटी-छोटी कहानियां लिख कर देतीं जिनके लिए उसको कई पुरस्कार मिले | पिता को बड़ा गर्व था अपने बेटे पर और वे सारे पुरस्कार बड़े करीने से ड्राइंग रूम में सजा कर रखते | आलिया को इस बात से कोई ऐतराज़ न था कि उसकी मेहनत का श्रेय उसके भाई को मिल रहा है | वो तो बस पढ़-लिख पा रही है इस बात से ही खुश थी |

“आलिया, तुम मेरी क्लास में होतीं तो तुम ही फर्स्ट आतीं हमेशा !” अनवार भी अपनी बहन का हुनर समझने लगा था |
हाँ ! अगर अब्बा मुझे स्कूल भेजते तो मैं तुमसे दो क्लास आगे ही होती , आलिया ने बुझी आवाज़ में कहा |  
अनवार अब पाँचवी में आ चुका था और उतने ही स्तर का ज्ञान आलिया को भी था , बल्कि ज्यादा ही | इस बीच बच्चियों और उनकी अम्मी ने क़ुरैशी साहब से कई बार आलिया की कॉपी दिखाते हुए उसे स्कूल में दाखिल करने की सिफ़ारिश की मगर वे टस से मस न हुए.......वही घिसे पिटे तर्क , वही पुराने बहाने !
अब तो अनवार भी अपनी बहन की सिफ़ारिश करने लगा था |
“अब्बा - अब्बा मेरे स्कूल की सभी टीचर्स कहती हैं कि हमें आलिया को भी स्कूल भेजना चाहिए , ये बड़ा नाम रोशन करेगी आपका |”
वो 10-11 बरस का बच्चा अपनी टीचर्स की रटी रटाई बातें दोहराता मगर कोई फायदा न होता |

“अपनी टीचर्स से कहना मैं काफी हूँ अपने बाप का नाम रोशन करने के लिए...लड़कियाँ तो यूँ भी पराई अमानत हैं...कल को उनका तो नाम और खानदान भी दूसरा हो जाने वाला है |”
अब्बा की बातें अनवार के पल्ले तो नहीं पडीं मगर वो समझ गया कि उसकी बहन के नसीब में स्कूल जाना नहीं लिखा है |  
बढ़ते खर्चे देख कर अम्मी और बहनें आस पड़ोस की औरतों के कपड़े सिलने का काम करने लगीं थीं | रुमाल पर कढ़ाई, दुपट्टों के किनारों पर क्रोशिया की लेस लगाने जैसे काम वे बड़ी खूबसूरती और सफाई से करती थीं | इस तरह थोड़ा बहुत पैसा भी घर में आ जाता था | कुछ तो घर खर्च में चला जाता और कुछ अम्मी अपने संदूक की तली में दबा कर रख देतीं |
कहाँ छुपा छुपा कर रखती हो अम्मी पैसे ? कभी ज़रुरत पड़ी तो खोजने से तुम्हें ही नहीं मिलेंगे |
लड़कियाँ उनका मज़ाक उड़ाती |
मगर हर औरत की तरह शायद वो भी कुछ पैसे छुपा कर ख़ुद को सुरक्षित महसूस करती थीं |

उस रोज़ अनवार के स्कूल में एनुअल फंक्शन था | अनवार ने नाटक में हिस्सा लिया था | उसको तैयार करके अब्बा स्कूल छोड़ आये थे , साथ ही आलिया को भी भेज दिया गया कि उसके सामान और ड्रेस की सम्हाल वो करेगी | अब्बा को उस रोज़ कहीं काम था सो वो चले गए |
आलिया स्टेज के पीछे तैयारियों में सबकी मदद करने लगी | टीचर्स के लिए उसका चेहरा जाना पहचाना था तो किसी ने रोक टोक नहीं की | हर एक परफॉरमेंस के बाद पर्दा गिरता और दूसरे की तैयारी होती |
तभी बीच में एक बच्चा जिसे कोई गीत गाना था उसकी तबियत ख़राब हो गयी | दर्शकों में हलचल होने लगी....
स्टेज सूना पड़ा देख अनवार की टीचर ने आलिया से कह दिया – “ जाओ तुम परदे के आगे माइक लगा है उस पर कोई कविता सुना दो |
आलिया के भीतर आत्मविश्वास तो था ही | फट से उसने माइक सम्हाला और अपनी प्यारी सी आवाज़ में एक कविता पढने लगी –
छोटे से हैं ख्वाब हमारे, बड़ी बड़ी उम्मीदें
जेब में हों गर पैसे थोड़े, तो हम चाँद खरीदें .......
छोटे से हैं ख्वाब हमारे......
आलिया की कविता पूरी होते ही उस छोटे से स्कूल का हाल तालियों से गूँज गया | सभी शोर करने लगे की और सुनाओ, और सुनाओ.....
आलिया ने और भी कवितायें सुना कर सबका मन जीत लिया | नन्हा अनवार भी अपनी बहन के लिए बहुत खुश था |
उम्र में छोटा था मगर समझता ज़रूर था कि आलिया का कितना मन है स्कूल में पढने का और कितनी काबिलियत है उसमें ये भी जानता था मगर वो आखिर कर भी क्या सकता था |
आलिया वापस स्टेज के पीछे आ गई तब तक अगले कार्यक्रम की तैयारी हो गयी थी |
टीचर भी बहुत खुश थीं आलिया से | उन्होंने उसे गले लगा कर कहा, “तुम्हें ज़रूर आगे पढ़ना चाहिए आलिया ... खूब आगे बढ़ना चाहिए.....”
क़ुरैशी मास्साब के ख़यालों से अनजान टीचर ने ज़िद्द करते हुए कहा – “आलिया तुम आया करो न स्कूल , तुम्हारे जैसी प्रतिभा घर में पड़ी पड़ी ज़ंग खा जायेगी | स्कूल आओगी तो तुम्हारा व्यक्तिव निखर जाएगा और तुम्हारा भविष्य भी |”
अनवार ने रुंधे गले से बहन का हाथ पकड़ लिया –
मैं अब्बा से खूब ज़िद्द करूंगा कि तुम्हें पढ़ाएं | काश मैं तुमसे बड़ा होता तो खुद कमाता और तुम्हें ज़रूर पढ़ाता |
आलिया हँस पड़ी....छोटे हो तो क्या.....बड़े हो जाओगे तब कमाना ,फिर पढ़ा देना....पढने की कोई उम्र थोड़ी न होती है |
अनवार अपनी बहन के हँसते चेहरे पर उदास आँखें देख सकता था , वो भी उदास हो गया.....उसको बहुत दुःख हुआ अपने गरीब होने पर...अपने छोटा होने पर और सबसे ज्यादा अपने पिता के पुराने दकियानूसी ख्यालों पर उसको दुःख हुआ |
अचानक अनवार बड़ा हो गया था..........अपनी उम्र से बहुत बड़ा...अपनी बड़ी बहन से भी बड़ा.....

उस रोज़ जब अब्बा उनको स्कूल लेने आये तो उसकी टीचर ने उन्हें आलिया के बारे में बताया |
“क़ुरैशी साहब आपकी बच्ची बहुत होनहार है और बेहद मेहनती भी | बच्चों में पढने और सीखने की ऐसी लगन आजकल कहाँ देखने मिलती है | आप उसका दाख़िला हमारे स्कूल में करवा दें जिससे वो नियमित विद्यार्थी की तरह पढ़ाई कर सके | “
“देखिएगा आपको अपनी इस बेटी पर फ़ख्र होगा एक दिन | मगर उसके लिए आपको आगे आना होगा |” टीचर ने जोर देते हुए कहा.....
अनवार और आलिया उम्मीद भरी नज़रों से अपने अब्बा का मुँह ताक रहे थे कि जाने क्या जवाब होगा उनका...
कम से कम टीचर से तो उल्टी सीधी बात वे कर नहीं सकते |
उन्होंने सिर्फ इतना कहा - जी , आपका बेहद शुक्रिया |  और चुप हो गए | दोनों बच्चे हैरानी से अपने अब्बा का चेहरा देखते रहे |
तभी टीचर ने अपनी मेज़ से एक फॉर्म उठाया और उन्हें पकड़ा दिया |
ये लीजिये ,एडमिशन फॉर्म है , हम सीधे पाँचवी में दाख़िल कर रहे हैं आलिया को | आप इसे भर कर , अपने दस्तखत के साथ आलिया के हाथों भिजवा दीजिये...बाकी औपचारिकतायें हम पूरी कर लेंगे |
अब्बा ने चुपचाप फॉर्म लिया| टीचर को खुदाहाफिज़ कहा और बाहर निकल आये |
रास्ते भर किसी ने कोई बात नहीं की |
घर पहुँचते ही अब्बा ने फरमान ज़ारी किया कि कल से अनवार को स्कूल लाने ले जाने का ज़िम्मा उनका |
कड़कती आवाज़ में वे बोले - हम न जा सके तो फिर बड़ी बहनों में से कोई जायगा | और आलिया को घर के काम सिखाये जाएँ , अब उसकी नादानियों की उम्र नहीं रही |
अनवार बोल पड़ा...”अब्बा कैसी नादानियाँ ?? आलिया को तो सब कितना समझदार कहते हैं | आप प्लीस फॉर्म पर दस्तखत ज़रूर करें |”
“आप ज्यादा सयाने न बनें अनवार मियाँ” ...अब्बा ने ज़रा सख्त लहजे में कहा तो नन्हा अनवार चुप रह गया |
रात भर अनवार को नींद नहीं आयी....और वो सुनता रहा आलिया की दबी-दबी सिसकियाँ |
दो दिन बाद ईद थी | घर में खुशियों का माहौल था | पूरे साल में यही तो एक मौका होता था जब उन्हें मनचाहे तोहफे नसीब होते थे, “ईदी” के रूप में |
पिछले दिन की तल्खियाँ भूल कर सब खुश थे...मगन थे इस सोच में कि अपने लिए ईदी क्या माँगी जाय |
बड़ी दोनों बहनों ने सलवार कमीज़ के कपड़े और दर्ज़न भर चूड़ियाँ लीं | माँ के लिए भी ज़रुरत के दुपट्टे लाये गए | आलिया ने किताबों की छोटी सी फ़ेहरिस्त दी थी जिसके लिए अब्बा इनकार न कर सके | आखिर वो उसकी ईदी, उसका हक़ था |
अनवार से पूछा गया कि उन्हें क्या चाहिए तो उसने टाल दिया....
अभी मैं सोच रहा हूँ अब्बा | क्या मैं कोई बड़ी चीज़ मांग सकता हूँ ? उसने मासूमियत से कहा |
अब्बा ने निहाल होकर कहा.....हाँ बेशक ! आखिर आप हमारे खानदान के चिराग हैं | आपसे ही तो रोशन है हमारा नाम, हमारा घर |
ठीक है फिर ईद की सुबह मैं आपको बताऊंगा |
क्यूँ रे क्या मांगेगा अपने अब्बा से ? माँ और बहनें उत्सुक थीं |
“कोई बहुत बड़ी चीज़.....” अनवार ने सस्पेंस को बढ़ाया !
क्या कंप्यूटर मांगेगा? या मोबाइल ? लड़कियों ने छेड़ा |
सबके सब हँसने लगे , क्यूंकि ये सब उनकी हैसियत से परे था ,वे जानती थीं |
ईद की सुबह सबने नए कपड़े पहने |
अब्बा अनवार को लेकर ईदगाह चले गए ,नमाज़ पढने |
अम्मी और लड़कियों ने घर में नमाज़ अदा की |
ईदगाह में नमाज़ पढने के बाद अब्बा ने अनवार को गले लगा लिया |
अनवार ने हाथ बढ़ाया.....अब्बा मेरी ईदी ?
हाँ क्यूँ नहीं...उन्होंने अपने कुरते में हाथ डाला , कई दिनों ने पैसे बचा रखे थे इस दिन के लिए |
अनवार ने उनका हाथ पकड़ लिया |
अब्बा आप चाहते हैं न कि हम आपका नाम रोशन करें ?
हाँ बेटा, हर बाप यही चाहता है |
फिर आप “अपना नाम” एक दफ़ा मेरे लिए यहाँ लिख दें, वही मेरी “ईदी” होगी !! .......फिर एक दिन आपको गर्व होगा अपने नाम पर , अपने बच्चों पर |
कहते हुए उसने आलिया का एडमिशन फॉर्म निकाला और दस्तख़त की जगह अपनी नन्हीं उँगलियाँ रख दीं.......
अब्बा उसका चेहरा देखते रह गए.....इतना छोटा बच्चा और ऐसी समझ |
ज़िन्दगी में पहली दफ़ा उन्हें शर्मिंदगी हुई खुद पर......
उनकी पलकें भीग गयीं | उन्होंने पेन निकाला और चुपचाप दस्तखत कर दिए |

अनवार उनके गले में झूल गया |
ईद मुबारक अब्बा | ईद मुबारक.......................  
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बेटियाँ

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दुष्यंत संग्रहालय, भोपाल में सरोकार संस्था द्वारा बेटियों पर आधारित समारोह - 


मेरी जिस कविता को सम्मान और सराहना मिली वो साझा कर रही हूँ.....


"भेदभाव "

मिट्टी नहीं करती भेदभाव
अपने भीतर दबे बीजों पर...
होते हैं सभी बीज अंकुरित
और लहलहाते हैं
फूलते हैं, खिलते हैं....
मनुष्य ऐसा नहीं है !
वो मसल देता है
उन बीजों को
जिनसे जन्मती हैं बेटियाँ ...
ईश्वर ने मनुष्य को बुद्धि दी,
मनुष्य ने
स्वयं को ईश्वर बना लिया |
ईश्वर के आंसुओं से भीगती हैं मिट्टी
अन्खुआते हैं बीज,
मनुष्य का मन नहीं भीगता
न आंसुओं से न रक्त से !


बेटियाँ

बेटियाँ अलग होती हैं

पहला निवाला
घी वाला
उसका नहीं होता अक्सर
मगर
उसे आता है ये भूल जाना
और तोडती है वो अपने निवाले खुद,
हर कौर उसका अपना !

उसके हिस्से आती है पुरानी यूनिफोर्म
पढ़ती है पुरानी किताबों से
फिर लिखती है नयी कहानियाँ
उसके हस्ताक्षर अब सब जानते हैं !

उसके जन्म के समय
नहीं खाए माँ ने लड्डू,
नहीं बांटी मिठाई पिता ने/दादी ने
मगर बेटियाँ नहीं याद रखतीं ये सब...
लड्डुओं की बड़ी टोकरी
पहुँचती है मायके
हर सावन
बिना नागा !

सच !! बेटियाँ अलग होती हैं !!

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मेरी लिखी कहानी - महक मिट्टी की - याद शहर में 92.7 big fm

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आजकल लिख रही हूँ कहानियाँ  नीलेश मिश्रा के याद शहर के लिए....
92.7 BIG FM में ये कहानियां पढ़ते हैं नीलेश अपनी रूहानी आवाज़ में...................
आप भी सुनिये मेरी लिखी कहानी "महक मिट्टी की "

लिंक दे रही हूँ.....पढने से ज्यादा आपको सुनने में आनंद आएगा !

https://www.youtube.com/watch?v=cvPYY9jqcmo&index=2&list=PLRknjC5MPHa29hPAM0Mg1IfFEUuFkqeBx



महक मिट्टी की.....
एअरपोर्ट से लौट रही थी आरती......उसकी आँखें नम थीं मगर दिल गुनगुना रहा था | ठंडी हवा के झोंके  आरती के गालों पर यूँ पड़ रहे थे मानों हवा भी उसे थपथपा कर कर कह रही हो – वेलडन आरती !! आसमान पर बादलों के बीच पूरा चाँद चमक  रहा था.......आज आषाढ़ की पूर्णिमा यानि गुरु पूर्णिमा थी, क्या सुखद संयोग है...आरती मुस्कुरा दी !
लेकिन उसके गालों पर आँसू का एक कतरा लुढक आया.... 
मिस यू पापा.....आप खुश हो न अपनी बेटी से? आरती बुदबुदाई.....
आरती को लगा जैसे वो चाँद और तेज़ी से चमका और हौले से मुस्कुराया भी...
आरती भी मुस्कुरा दी ....... “लव यू पापा !”
आरती की कार जितनी तेज़ी से आगे दौड़ रही थी उसका मन उतनी ही तेज़ पीछे की ओर दौड़ रहा था, अतीत की गलियों की ओर......तकरीबन दो साल पीछे......
आरती के पापा को गुज़रे तब सिर्फ दो महीने ही हुये थे| वक्त धीरे-धीरे भर रहा था मन के घाव...... आरती अपनी माँ के साथ आने वाली ज़िन्दगी का ताना-बाना बुनती रहती | 27 बरस की बेहद समझदार और संवेदनशील लडकी थी वो | अपने पापा में उसकी जान बसती थी और उनके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की थी उसने | मगर नियति से कौन जीत सका है | जाने वाले तो चले ही जाते हैं और उनके बाद भी जीवन जैसे तैसे चलता ही रहता है |
“माँ , मैं पापा की याद को मन में हमेशा के लिए ताज़ा रखने के लिए कुछ करना चाहती हूँ |” उस रोज़ आरती ने माँ के आँचल से खेलते खेलते अचानक कहा था |
माँ ने बिना कुछ कहे सवालिया नज़रों से आरती की ओर देखा.....
“माँ , मैं एक ऐसा काम करना चाहती हूँ जो पापा के बहुत चाहने पर भी मैंने नहीं किया | उनके जीते जी न सही मगर अब उनकी इच्छा पूरी करना चाहती हूँ और मैं लिखना चाहती हूँ एक किताब...उनके गाँव पर, उनके बचपन पर |”
“मगर इसके लिए तो बेटा तुम्हें केरल जाना पड़ेगा , और तुम्हें मलयालम भी नहीं आती” , माँ ने बस इतना जवाब दिया था |
“वही तो माँ......वही तो सीखना है सबसे पहले ! पापा की ये भी तो एक इच्छा थी कि मैं मलयालम सीखूँ ! मगर मेरा बचपना भी न , उनकी बातें हँसते हँसते टाल जाती थी...फिर पापा ने भी  कभी जिद नहीं की ..ना तुमसे और न मुझसे | पता नहीं क्या सोच कर आरती का गला रूंध गया था | जैसे कोई अपराधबोध पल रहा हो उसके भीतर......
“बड़ी समझदारहो गयी है मेरी बेटी ”....माँ ने आरती को दुलारा |
“हाँ माँ , मुझे बच्चा बनाये रखने वाले पापा जो नहीं हैं अब |” कहते कहते आरती खो गयी  , जैसे मन चल पड़ा हो कहीं दूर........... कोई तो ऐसा ख्याल था जो आरती के ज़हन में पल रहा था और जिसने इतने लम्बे सफ़र का रूप ले लिया था |

आरती अपने माता-पिता की एकलौती संतान थी | पापा केरल से थे  और माँ मध्यप्रदेश की पली बढ़ी थी | पापा नौकरी की तलाश में एम पी  आये और यहीं बस गए | घर में हिंदी अंग्रेज़ी ही बोली जाती रही और मलयालम दोनों भाषाओं के  बीच कहीं दब कर रह गयी | आस- पड़ोस के लोग, दफ्तर के साथी , बाज़ार में दुकानदार , सभी जो भाषा बोलते वही आरती के घर में बोली जाने लगी | जीने के रंग ढंग , खान पान के क़ायदे , तीज त्यौहार वगैरह सभी कुछ मध्य प्रदेश का हो गया |

“ठीक है भई, जैसा देस  वैसा भेस” ...आरती के पापा अक्सर ठंडी सांस भर कर बोलते |
आरती अपने पिता के बेहद करीब थी | पापा उसकी ऊर्जा थे और वो पापा के जीने की वजह | अपने पापा के स्नेह, मार्गदर्शन और प्रोत्साहन की वजह से ही आरती बेहद मज़बूत, और हौसले से भरी हुयी  लडकी थी |
पापा अपनी मिट्टी से दूर ज़रूर आ गए थे और बहुत खुश और सफल भी थे मगर उनके मन के भीतर एक गहरा लगाव था अपने गाँव से | और दूर चले आने की एक कसक भी थी........
वे आरती को अपने बचपन के ढेरों किस्से सुनाते |
“जानती हो बेटा , हम स्कूल तुम्हारी तरह बस से नहीं जाता था , तैर कर जाता था ....बीच में एक नदी था और नाव में खाली लडकी लोग होता था या फिर बूड़ा लोग | तो बस क्या हम छलाँग लगा देता था नदी में , और तैर कर पार कर जाता |
पापा नदी “था” नहीं ...”थी” और पार करता ‘था’ नहीं ..करते थे “| आरती हँसते हुए बस पापा की हिंदी सुधारने में लगी रहती और पापा उससे बेखबर अपनी किस्सागोई में खोये रहते |
 “हाँ , और किताब केला का पत्ता में  लपेटता था कि भीगे नहीं | पापा बोलते चले जाते |
आरती के पापा उसको बताते कि कैसे वे काली मिर्च की कंटीली बेल से फल तोड़ते , नारियल के लम्बे लम्बे पेड़ों पर सरपट चढ़ जाते | पापा की हर बात से गाँव की मिट्टी की सौंधी महक आती थी |
“तुम मुझसे मलयालम में बात किया करो तो तुम भी सीख जायेगा धीरे धीरे” .....कभी कभी उसके पापा प्यार से  कहते | “फिर अपना गाँव दिखाने ले जायेगा तुमको , तुम्हारा भी गाँव  “.........कहते कहते पापा कहीं खो जाते | 
मगर कान्वेंट में पढने वाली लड़की आरती , हिंदी ही मुश्किल से  बोलती थी तो मलयालम का सवाल कहाँ था | हाँ पापा की हिंदी जरूर सुधर गयी थी |
पापा उसे केरल की लोक कथाएं सुनाते , वहां के खान पान , संस्कृति , तीज त्योहारों के बारे में बताते रहते थे |
आज जब पापा नहीं हैं तब आरती को एहसास हुआ कि पापा उसको भी अपनी जड़ों से जोड़ने की कितनी चाहत रखते थे और वो अपनी नादानी में उनकी भावनाओं को अनदेखा करती रही |
जिस शिद्दत से पापा ने यहाँ की भाषा को सीखा और संस्कृति को अपनाया , क्या वैसे प्रयास हम नहीं कर सकते थे ... यह सोचकर आरती की आँखों से आँसू लुढ़क आये और वो देर तक माँ की गोद में सर छुपाये रोती रही |
“माँ मैं केरल, पापा के गाँव जाना चाहती हूँ , वो भी जल्द से जल्द |”
“भावनाओं में बह कर कोई फैसला मत करो आरती” माँ ने उसको समझाने की कोशिश की |
“सोच लो तुम कैसे मैनेज करोगी वहां? रहोगी कहाँ ? खाओगी क्या...! पहले प्लान तो कर लो बेटा”|
नहीं माँ.....ज्यादा प्लानिंग और देर की  तो कहीं अपने इरादे से पलट न जाऊं इसलिए मैं परसों ही चली जाऊँगी |”
बेटी का मन माँ ने पढ़ लिया था इसलिए कुछ नहीं कहा और उसका सामान पैक करने लगी | और बस आरती का सफ़र वहीं से शुरू हो गया था |

ख्यालों में खोये खोये ही आरती की एर्नाकुलम तक की लम्बी यात्रा पल में गुज़र गयी | वो जल्द से जल्द अपने पिता के गाँव “आइरूर” पहुंचना चाहती थी | स्टेशन पर उतर कर रिटायरिंग रूम में ही फ्रेश होकर आरती ने टैक्सी ली और चल पड़ी |
गाँव पहुँची तो उसका दिल ज़ोरों से धड़क रहा था.....
“इतनी दूर न जाने किसके सहारे चली आयी हूँ | यहाँ कोई होटल तो मिलने से रहा, देखती हूँ कहीं ठहरने का कोई जुगाड़ हो जाय तो अच्छा हो, वरना वापस शहर तक जाना होगा |” आरती खुद से बातें करके खुद को ही तसल्ली देती जा रही थी | 
बहुत पहले बचपन में कभी वो आयी थी यहाँ जब उसके दादा का देहांत हुआ था | उसके बाद फिर आना नहीं हुआ और उस बात को करीब 12-13 साल बीत चुके थे | बाद में पापा ही अकेले आकर पूरी प्रॉपर्टी किसी को बेच कर चले गए थे | क्यूंकि न माँ की इच्छा थी कि केरल में सेटल हुआ जाय न आरती का मन था |
आरती सीधे जाकर अपने पिता के घर के सामने रुक गयी | सीधी सड़क पर बने इस घर को खोजने और फिर पहचानने में उसको ज़रा भी तकलीफ नहीं हुई|

घर के ठीक सामने एक मंदिर था जिसमें किसी भगवान् की नहीं बल्कि एक गाँव की वेशभूषा वाले इंसान की मूर्ती थी | पापा ने उसे बताया था कि ये मंदिर उसके दादाजी ने बनवाया था, इस बहादुर आदमी ने एक आदमखोर शेर से कई गाँव वालों को बचाया था मगर खुद मारा गया | नीची जाति का होने के कारण गाँव वालों ने मंदिर निर्माण का बड़ा विरोध किया था मगर दादाजी की ज़िद्द के आगे किसी की न चली थी | आरती ने मंदिर के आगे एक सल्यूट मारा ...उसे गर्व हुआ कि वो ऐसे दादा की पोती है |
आरती का गला सूख रहा था....बोतल निकाल कर उसने पानी पिया और ऊंचे बने घर की सीढियाँ चढ़ने लगी | दरवाज़ा यूँ ही खुला पड़ा था...लम्बे बरामदे के कोने में एक आराम कुर्सी पड़ी थी जो शायद तब भी थी जब उसके दादा यहाँ रहते थे
बरामदे में खड़े होकर उसने आवाज़ लगाईं...............हेल्लो !! कोई है.......??
भीतर से एक साठ पैंसठ साल की एक बुज़ुर्ग महिला निकलीं...अपनी ऐनक ठीक करते हुए उन्होंने पूछा – कौन है ? वो मलयालम में बात कर रही थीं...थोड़ा बहुत आरती को समझ आया और थोड़ा नहीं |
उसने अंग्रेज़ी में बातचीत आगे बढ़ाई– मैं आरती ! भोपाल से आयी हूँ !
उसने अपने पिता का परिचय दिया और उन्हें याद दिलाया कि ये घर और इससे जुडी ज़मीनें कभी उसके पिता की हुआ करती थीं |
उस औरत की आँखों में चमक आ गयी | उन्हें सब याद था | उन्होंने आरती को बैठाया...कॉफ़ी पिलाई और फिर उसके यहाँ इतनी दूर, वो भी अकेले आने का मकसद पूछा |
उनका अपनापन देख कर आरती को तसल्ली हुई कि इस गाँव में उसे कोई पहचानने वाला तो मिला|
वो रोज़ी आंटी थीं , उनके पति ने ही आरती के पापा से प्रॉपर्टी खरीदी थी | अब वे रहे नहीं और आंटी यहाँ अकेले  रह रही थीं |
सबसे ज्यादा हैरानी आरती को तब हुई जब रोज़ी आंटी ठीक ठाक हिन्दी में बात करने लगीं | और उन्होंने बताया कि उन्हें अच्छी समझ है हिंदी भाषा की |
“दरअसल मैंने कुछ साल यहीं गाँव के स्कूल में हिन्दी पढ़ाई है |” रोज़ी आंटी ने बताया |
रोज़ी आंटी ने आरती का खुले दिल से स्वागत किया और वहीं अपने घर में रहने और खाने पीने का बंदोबस्त भी कर दिया |
सारा घर ख़ाली पड़ा है...तुम जहाँ चाहे रह सकती हो | और जो चाहोगी वही मैं तुमको पका कर खिला सकती हूँ , आंटी ऐसे खुश थीं मानों उनका कोई अपना लौट आया हो |
आरती को लगा उसे जैसे कोई देवदूत मिल गया हो , उसकी समस्या का आसान सा हल लेकर लेकिन गाँव में रहना इतना भी आसान नहीं था |

आरती अब रोज़ी आंटी के साथ गाँव में यहाँ वहां घूमती, उनसे ढेरों सवाल करती | और आंटी भी बड़ी खुशी खुशी उसको सब कुछ विस्तार से बतातीं | एक ही परेशानी थी ..आरती के लिए मलयालम अभी भी एक मुश्किल भाषा थी | रोजी आंटी उसके लिए दुभाषिये का काम कर रही थीं |
आरती रोजी आंटी से पापा के बारे में पूछती और कभी रोजी आंटी की जिन्दगी की बारे में भी जानना चाहती |
आंटी ने बताया कि उनका परिवार बचपन से पापा के घर के पड़ोस में रहता आया है इसलिए जब ज़मीन बेचने की बारी आयी तो पापा ने सबसे पहले उनसे ही पूछा | शायद मन में ये उम्मीद रही हो कि कभी यहाँ आना हुआ तो कम से कम अपने लोग तो दिखेंगे |
“रोज़ी आंटी आप यहाँ अकेले रहते हुए बोर नहीं होतीं ?”  आरती ने एक रात खाना खाते हुए उनसे पूछा....
“यहाँ कितना सूना होता है सूरज ढलने के बाद.....कैसा सन्नाटा होता है ! आपको डर नहीं लगता ?”
रोज़ी आंटी की आँखों में अचानक उदासी तैर गयी थी |
“अकेले रहना किसे अच्छा लगता है बिटिया , ऐसी ज़िन्दगी कोई मांग के नहीं लेता.....किस्मत ऐसे फैसले हम पर थोप देती है | आंटी ने बुझी आवाज़ में कहा.......
उस रात आरती की आँखों में रोज़ी आंटी की उदासी घर कर गयी थी | उसने सारी रात तारे गिनते हुए काटी |
एक सुबह चाय और केले के चिप्स खाते खाते आरती ने उनसे पूछा –“आंटी आपका एक बेटा भी है न ? आप उनके पास क्यूँ नहीं चली जातीं ?”
आंटी थोड़ी देर चुप रही ...आरती को लगा शायद उसने अपनी हद पार कर दी है ....और आंटी इस सवाल का जवाब ही नहीं देना चाहतीं |
“कौन माँ नहीं चाहेगी अपने बेटों के साथ रहना | किसे नहीं अच्छा लगता भरा पूरा घर , नाती पोतों के साथ खेलना | मगर ये सुख मेरी किस्मत में नहीं है शायद ......आरती को लगा आंटी उससे नहीं बल्कि ख़ुद से बात कर रही थीं.......
क्या हुआ आंटी ? बताइए न ! – झिझकते हुए आरती ने दबाव डाला | मैं आपकी इतनी अपनी तो हूँ कि आप अपना दुःख मुझसे बाँट सकें |
मेरा बेटा तो बेटा कहलाने लायक ही नहीं है | यहाँ से अपने हिस्से की ज़मीन बेच कर जो गया तो फिर लौटा ही नहीं | न अपना पता ठिकाना बताया, न हमारी खबर ली | लोगों से पता लगा मुंबई में है और सुखी है | मुझे और क्या चाहिए |
आंटी की आवाज़ में अचानक गुस्सा तैर गया था |
बस आंटी ? आपको उसके सुख के सिवा और कुछ नहीं चाहिए ? आपका सुख कोई मायने नहीं रखता ??
आंटी खामोश रहीं.....कुछ कहा नहीं उन्होंने ......आंटी के दुःख का एक ही इलाज था ....मेहमान बनकर आयी आरती और उसको मलयालम सिखाने का जोश |
आरती को वहां रहते हुए कई दिन हो गए थे...उसने काफ़ी मलयालम सीख ली थी और आंटी के पास रखीं पापा की कुछ चिट्ठियाँ पढ़ना भी वह सीख गयी थी |

गाँव के ठीक बीच से एक नहर जाती थी , आरती ने कई दफा अपने पापा से उस नहर का ज़िक्र सुना था कि कैसे वे अपने दोस्तों के साथ नहर की संकरी दीवार पर दौड़ लगाया करते थे.......
उस रोज़ नहर पर पहुँचते ही आरती ने अपनी डायरी और पेन आंटी को पकड़ाया और चढ़ गयी उसकी दीवार पर, और दौड़ने लगी.......वो पूरी तरह जीना चाहती थी अपने पापा का बचपन |
आंटी ने डर कर आँखों पर हथेलियाँ रख लीं ...आरती हंस पड़ी और जोर से चिल्लाई......”डरिये मत आंटी, शहर के ट्रेफिक में  चलने वाली इस लड़की को गाँव की इस खाली पगडंडी पर कुछ नहीं होगा | “
उस दिन आरती को ऐसा लगा था कि उसने पापा को वापस पा लिया है |
उस दिन पहली बार ख्यालों में अपने पापा से मलयालम में बात करती रही थी आरती , ढेर सारी बातें.....!

अगले कई दिन तक आरती अपनी किताब लिखने में व्यस्त रही | रोज़ी आंटी उसका पूरा ख़याल रखतीं और वक्त वक्त पर उसको कई छोटी बड़ी बातें बताती रहतीं | कभी आरती बाज़ार आते जाते घर की चीज़ें भी ले आती |
आंटी खूब नाराज़ होतीं , उलाहने देतीं | इस मीठी तकरार के बीच दोनों का रिश्ता और गहरा होता रहा | आरती को यूँ लगता कि उसने अपने गांव में किसी करीबी रिश्तेदार को पा लिया है जो अपनी मुफलिसी में भी दरियादिली से उसका ख़याल रखती हैं |
रात दिन आरती अपनी किताब के लिए matter इकठ्ठा करती रहती | रोज़ी आंटी उसे बाकायदा मलयालम भाषा के पाठ पढ़ातीं, उससे सवाल जवाब करतीं , उसको वहां की लोक संस्कृति से जुड़ी हुई बातें बतातीं | शायद उनसे बेहतर टीचर आरती को कोई मिल ही नहीं सकती थीं |
बाद में आरती उन्हें प्यार से गुरु माँ कहने लगी और रोजी आंटी इस बात से बहुत खुश होतीं |
आंटी की याददाश्त बहुत तेज़ थी और दिमाग भी | इस उम्र में भी उन्हें हज़ारों कहानियां, किस्से, और कवितायें रटी हुईं थीं | थोड़े समय में ही उन्होंने आरती को मलयालम और केरल से पूरी तरह जोड़ दिया था |
“आंटी , पता नहीं मैं आपका एहसान किस तरह चुका पाऊँगी |” एक रोज़ आरती ने बहुत भावुक होकर उनसे कहा |
“कैसा एहसान बेटा...बल्कि तुम आयी यह मेरे लिए अच्छा हुआ .......मेरे घर के सन्नाटे कम हो गये|
तुम्हारी हंसी से ये घर खिलखिलाने लगा है | काश मैं तुमको हमेशा के लिए रोक पाती”......आंटी की आवाज़ भर आई थी |
“चलिए कॉफ़ी पीते हैं, फिर मंदिर भी तो जाना है” – कहते हुए आरती उठ गयी , अपने आँसू दिखा कर वो आंटी को और दुखी नहीं करना चाहती थी |
उन दिनों गाँव के मंदिर में उत्सव चल रहा था | केरल के मंदिरों में ये ख़ास अवसर होता है | रात भर वहां तरह तरह के लोक नृत्य होते हैं ,जिनमें गाँव के ही पुरुष ,स्त्रियाँ और बच्चे हिस्सा लेते हैं | बहुत रौनक रहती है उन दिनों गाँव में |
रात रात जाग कर आरती ने भी कथकली, थैय्यम और तिरुवादिरा का आनंद लिया |
“तुम एकदम सही वक्त पर आयी हो आरती,” आंटी खुश होकर उससे कहतीं |
वहां रह कर आरती ने तरह तरह के अप्पम बनाना सीखे, केले के पत्ते पर खाना और उसमें परोसना भी सीखा |
“जानती हो पत्ते में हर डिश की अपनी एक तय जगह होती है और पत्ते को रखने की दिशा भी तय होती है |” आंटी उसे जितने चाव से बतातीं आरती उतने ही चाव से सब कुछ समझती और लिखती जाती |
अगले दिन आरती केरल के प्रसिद्द अरमुला मंदिर गयी | वहां धातु को घिस कर आईना बनाने की नायाब तकनीक देखी |
आरती को याद आया कि पापा ने बताया था कि शुभ होता है इस आईने का घर में होना | आरती ने एक सुन्दर सा आइना खरीद लिया और उसमें अपनी सूरत देखने लगी |
मंदिर से मिले चन्दन के आड़े टीके और गुच्छा भर वेणियों से सजी आरती अपना अक्स देख कर मुस्कुरा उठी |
“आंटी , आज पापा मुझे इस रूप में देखते तो खुश हो जाते ” कहते कहते आरती का गला रुंध गया|
आंटी ने उसकी बलाएँ ली और माथा चूम लिया | आंटी के इस प्यार के वजह से आरती की जिन्दगी को एक नया मकसद मिल गया था |


अगले दिन सुबह वो उठकर  बरामदे में आयी तो आंटी एक बॉक्स में कुछ पैक कर रही थीं | आरती वहीं फर्श पर उनके पास बैठ गयी | “क्या है ये सब आंटी ?”
“ये सब तुम्हारे लिए है, मेरी तरफ से तोहफा समझ लो ! ...... ध्यान से देखो इन तस्वीरों को | ये सब तुम्हारे पापा की या उनके बचपन से जुड़ी तस्वीरे हैं | कुछ चिट्ठियाँ हैं,  और भी कई छोटी छोटी चीज़ें हैं.......
ये सब मुझे परछत्ती पर पड़े एक संदूक में मिली थीं जिन्हें शायद तुम्हारे पापा देख नहीं पाए होंगे|”
आरती की आँखें भीग गयीं | भाषा ज्ञान के अलावा आंटी ने उसकी झोली अनमोल सौगातों से भर दी थी | वो आंटी के पैरों पर झुक गयी, आंटी ने उसे गले लगा लिया और पता नहीं कितनी देर दोनों आंसुओं से एक दूसरे का कंधा भिगोती रहीं |
अगले सुबह आरती जल्दी उठ कर सामने की पहाडी पर बने घर गयी | ये उसकी दादी का घर था और यहाँ पापा का जन्म हुआ था | वहां खड़े होकर आरती ने गहरी सांस ली....उसे लगा कोई अपनी सी , जानी पहचानी महक उसकी नाक से सीधे ज़हन में पहुँच गयी | उसने ज़मीन से मिट्टी उठायी और अपनी मुट्ठियाँ भींच लीं |
आरती सोचने लगी – “ऐसे ही एक मुट्ठी मिट्टी पापा भी लेकर आये थे जब उन्होंने ज़मीन का आख़री टुकड़ा बेचा था और उस मिट्टी को उनके साथ ही विदा किया था हमने.......”
आरती सिसक सिसक कर रोती रही ......घर के बाहरी दरवाज़े की चौखट पर पापा की जन्म तिथी खुदी हुई थी , आरती ने हौले से उन शब्दों को सहलाया | पूरी पहाडी में आरती एकदम अकेली थी मगर उसको ज़रा भी न डर लग रहा था न अकेलापन | बस बरसों बाद अपने घर लौट आने जैसा एहसास तारी था |
उस दिन आरती बहुत अनमनी रही | उसे एहसास हुआ था कि पापा का मन कितना कलपा होगा इस ज़मीन को छोड़ने में | वो सोचती रही – “काश मैं उनके जीते जी यहाँ आ पाती और उन्हें तसल्ली दे पाती कि पापा आप फ़िक्र न करें, मैं सींचती रहूंगी उन जड़ों को जिनसे आपका जीवन अंकुरित हुआ है |”
रात गहरा रही थी और आरती करवटें बदलती रही...कुछ दिनों में उसे वापस जाना था | तभी उसे आहट महसूस हुई, रोज़ी आंटी थीं......
“आइये न आंटी ” , आरती उठ कर बैठ गयीं...
“नहीं नहीं उठो मत आंटी ने स्नेह से ज़िद्द करके उसको फिर लिटा दिया |” उसके बालों में हाथ फेरते हुए वो गुनगुनाने लगीं.....
“ओमन तिंक्कल किडावो ”....................
आरती चौंक गयी...वो उठ बैठी....
“आंटी ये गीत क्या है ?” वो हैरान होकर कहने लगी , बचपन से सुनती आयी हूँ अपने पापा से ये कविता !न अर्थ जानती थी न सुर समझती थी , मगर एक एक लफ्ज़ याद हो गया था मुझे | मैं जब जब पापा से कहती तब तब वो गाने लगते और मैं खूब खुश हो जाती.....
“आरती ये एक लोरी है जो शायद केरल के हर घर में हर बच्चे को उसके माता पिता ने सुनायी होगी.....इसे बरसों पहले केरल के राज कवि ने लिखा था , और जिसे यहाँ के राजा “स्वाति तिरुनल” को सुनाया  जाता था |” आंटी अब भी उसके बाल सहला रही थीं |
अपने पूरे केरल प्रवास के दौरान आरती ने पापा का समूचा गाँव अपने भीतर समेट लिया था | उसके मन में बहुत खुशी थी और उससे भी ज़्यादा था आत्म संतोष |
आरती अपना सामान पैक कर रही थी....रोज़ी आंटी उदास आँखों से उसे देख रही थीं | आरती का मन भर आया.....अचानक वो बोली – “आंटी आप चलिए न मेरे साथ भोपाल, कुछ दिनों के लिए ही सही , आपका मन बहल जाएगा ”.. “प्लीज प्लीज आंटी, आपने मुझे मेरी जड़ों से मिलवाया है आंटी , अब मैं आपको वो डालियाँ दिखाउंगी जिन पर मैं फली ,फूली और झूली हूँ” आरती बच्चों की तरह ज़िद्द करने लगी |
ह्म्म्म......आंटी ने कुछ सोचते हुए सर हिलाया और फिर कहा , “इस मिट्टी को सींचने वाला भी तो कोई बचा होना चाहिए न गाँव में , तभी तो बची रहेगी महक मिट्टी की...
आरती को एहसास हुआ कि मिट्टी की महक दरअसल इंसान के साथ साथ ही चलती है चाहे ज़मीन क्यों न बदल जाए |
आरती ने आगे बढ़कर रोज़ी  आंटी को गले लगा लिया और खुद से यह वायदा किया कि साल में एक बार पापा के गाँव ... अपने गाँव जरूर लौटेगी |

अनुलता राज नायर





दैनिक जागरण के राष्ट्रीय संस्करण में मेरी किताब "इश्क तुम्हें हो जाएगा "की समीक्षा...............

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बदल रहा है मौसम
सर्द हवा की छुअन !
ठीक उस लड़की के नर्म स्पर्श की तरह
जिसने अभी अभी सीखा है प्रेम करना.....

यूँ आते हैं त्योहारों वाले दिन !
और यूँ आती हैं खुशियाँ............................................


दैनिक जागरणके राष्ट्रीय संस्करण में "रचनाकर्म "में मेरी किताब"इश्क तुम्हें हो जाएगा "की समीक्षा सीनियर रिपोर्टर 
Smita जी द्वारा.........
http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/28-sep-2014-edition-National-page_9-9525-73308072-262.html
http://epaper.jagran.com/epaper/28-sep-2014-262-delhi-edition-national.html




कहानी - मिष्टी

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पढ़िए मेरी लिखी कहानी -  "मिष्टी'
 जो मध्यप्रदेश जनसंदेश के साप्ताहिक "कल्याणी "में आज प्रकाशित हुई है |


 “ मिष्टी “

मुझे इसी घर में रहना है , इसी घर में...बस !!
कहते हुए मिष्टी अमोल के गले से झूल गयी |
अरे बाबा रुको तो ज़रा,देखने तो दो कि घर में कमरे कितने हैं, कैसे हैं , किराया कितना है , मकान मालिक कौन हैं , कैसे हैं ! कुछ देखे भाले बिना यूँ ही कैसे तय कर सकती हो तुम ?
मैंने तय कर लिया है अमोल , मुझे इसी घर में रहना है... कितना प्यारा सा आँगन है , हरी दूब से ढंका हुआ और देखो किस तरह छितरे हुए हैं उस पर हरसिंगार ! ओ बाबा मुझे तो इश्क हो चला है इन फूलों से......
घर वाकई बहुत सुन्दर था | हरसिंगार के अलावा और भी मौसमी फूलों से क्यारियां भरी हुईं थीं | कोने में एक बांस का झूला लटका था , और सामने संगमरमर की कॉफ़ी टेबल | पीछे एक झरना सा बना हुआ था जिसमें से पानी बहने का मधुर स्वर जैसे आमंत्रण दे रहा हो |

 “अय्यर्स”
हाउस नंबर 44, न्यू मिनाक्षी एन्क्लेव
घर के बाहर लगी नेम प्लेट पर लिखा हुआ था |
अमोल ठिठक कर पढने लगा , तब तक दरवाज़ा खोल कर मिष्टी भीतर चली गयी और उसने कॉल बेल भी बजा डाली |
हेमाँ! क्या अधीर लड़की बांधी है तूने मेरे पल्ले से ,नदी की तरह बहती चली जाती है बेरोकटोक ........अमोल बडबडाते हुए उसके पीछे पहुँच गया |
अमोल और मिष्टी की अभी अभी शादी हुई है और साथ ही अमोल का ट्रान्सफर भी | तमिलनाडु का त्रिची शहर दोनों के लिए अजनबीतो है ही साथ ही भाषा भी अनजानी है | सारी उम्र कोलकता में बिताने के बाद अचानक इतनी दूर चले आना दोनों के लिए आसान न था | यहाँ ज़्यादातर लोग तमिल ही बोलते थे और गैर तमिल भाषियों ने मिलने में ज़रा संकोच ही करते थे | पर मिष्टी और अमोल के उत्साह में कोई कमी नहीं थी |
दरअसल उनकी उम्र ही ऐसी थी उस पर नयी शादी , इश्क का ताज़ा ताज़ा बुख़ार , सब कुछ लुभावना लगना ही था , मानों आँखों पर गुलाबी काँच वाला चश्मा पहन रखा हो दोनों ने |  दोनों अकेले रहने के रोमांच का अनुभव तो करना चाहते थे मगर भीतर ही भीतर घबरा भी रहे थे कि कैसे सब कुछ सम्हाल पायेंगे |
शायद इसीलिए माँ-बाप की सलाह पर अमल करना चाहते थे कि ऐसा घर किराए पर लिया जाय जहाँ मकान मालिक का परिवार भी साथ रहता हो |
पढ़ाई ख़त्म करते ही तो शादी हो गयी थी मिष्टी की | अमोल को वो तकरीबन बचपन से जानती थी , पड़ोस में ही तो रहता था वो | साथ खेलते खेलते दोनों बड़े हुए और फिर कभी न जुदा होने की कसमें खा लीं | सब कुछ आसानी से होता चला गया था मिष्टी के जीवन में |
कुछ लोग ऐसे ही होते हैं.....ब्लेस्ड !!

अय्यर्स के घर का दरवाज़ा खुला और सामने खड़े थे एक सज्जन , जिन्होंने माथे पर चन्दन का बड़ा सा तिलक लगाया हुआ था और झक्क सफ़ेद धोती पहनी हुई थी | बदन पर कोई कपडा नहीं था, अलबत्ता उनका जनेऊ ज़रूर दिख रहा था | घर भीतर से एकदम सादा था | बाहर के कमरे में ही भगवान के कई फोटो फ्रेम किये हुए दीवार पर टंगे थे | घर अगरबत्ती की खुशबु से महक रहा था , सात्विक सा माहौल था |  एक पल को उन्हें लगा कि किसी मंदिर के द्वार पर खड़े हैं वो दोनों |

कुछ जगहों का अपना सम्मोहन अपनी ही पवित्रता होती है जो मन को बरबस खींचती है......पहले आँगन में बिखरे हरसिंगार और अब ये शांत सा कमरा.....
मिष्टी ने अपनी उँगलियाँ अमोल की कलाइयों पर कस दीं | अमोल समझ गया उसे इश्क़ हो गया है इस घर से |
अमोल ने नमस्ते की मुद्रा में हाथ जोड़ दिए | मकान मालिक याने अय्यर साहब ने प्रश्नवाचक दृष्टि उन पर गड़ाई और सिर्फ इतना पूछा – यस ?
“जी, हम बाहर टु-लेट का बोर्ड देख कर आये हैं, क्या आपके पास किराए पर देने के लिए कमरे हैं ,” अमोल ने पूछा |
सिर्फ हाँ कहते हुए उन्होंने आवाज़ लगाई – “ चित्रा...
अन्दर से एकदम पारंपरिक वेशभूषा में श्रीमती अय्यर बाहर निकलीं | वे पूरे नौ गज की सिल्क साड़ी में लिपटी थीं , उनके माथे पर भी वैसा ही चन्दन का तिलक था | नाक में मोर के डिज़ाइन वाली टिपिकल दक्षिण भारतीय नथ थी और बालों में खुशबूदार वेणी |
मिष्टी को लगा जैसे साक्षात देवी के दर्शन कर लिए हों | वो सम्मोहित सी खडी उन्हें देखती रह गयी |

अमोल ने ही फिर अपनी बात दुहराई – आपके पास किराए के लिए कमरे हैं ?
उन्होंने इशारे से अन्दर आने को कहा , साथ ही रूखे से स्वर में आदेश आया कि चप्पल उतार कर आना |
दोनों ने झटपट अपनी अपनी चप्पलें उतारीं और दरवाज़े पर पड़े डोरमैट पर पाँव घिसने लगे , मानों खुद को अच्छा बच्चा दिखाना चाहते हों दोनों |
भीतर पडी केन की सादी कुर्सियों पर उन्हें बैठने का आदेश मिला |
श्रीमती अय्यर ने मिष्टी को सर से पैर तक देखा |  मिष्टी अनमनी हो कर अपनी टी शर्ट को नीचे खींचने लगी और अपनी लम्बी खुली टांगों को कुर्सी के नीचे छिपाने की असफल कोशिश करने लगी |
कुछ कहे बिना ही इस होने वाली मकान मालिकिन ने मिष्टी को पसीने से भिगो दिया था |
खैर उन्होंने वार्तालाप शुरू किया | कौन जानता था कि ये वार्तालाप एक ही सवाल और उसके जवाब के बाद ख़तम होने वाला है......
 “ नाम क्या है आपका ?”  उन्होंने अमोल की ओर देखते हुए पूछा |
“अमोल मजुमदार “ अमोल ने जवाब दिया |
मजुमदार ? याने बंगाली ? श्रीमती अय्यर का लहजा ऐसा था जैसे बंगाली कोई गाली हो.......और साथ ही वो कुर्सी छोड़ कर खड़ी हो गयीं |
बेचारे अमोल और मिष्टी भी झट से खड़े हो गए और अमोल ने कहा......“ जी हम बंगाली हैं, हम दोनों ही |”
अमोल को लगा जैसे खुद को बंगाली कहकर वो कोई गुनाह कबूल कर रहा हो....

“सॉरी , हम आपको घर नहीं दे सकते ,” चित्रा जी याने श्रीमती अय्यर ने एकटूक फैसला सुना दिया |
मिष्टी की तो आँख ही भर आयी, उसने नर्म से लहजे में पूछा , “ क्यूँ आंटी, हमें आप घर क्यूँ नहीं दे सकतीं ? “
“ हम ब्राह्मण हैं, और तुम लोग रोज़ मांस मच्छी खाने वाले.......मैं अपने घर में इन सबकी बिलकुल इजाज़त नहीं दे सकती , कतई नहीं | आप यहाँ न बनायें तब भी नहीं........आप हम लोगों से एकदम अलग है......” उन्होंने जिस तरह फैसला सुनाया उसके बाद कुछ कहने- सुनने की गुंजाइश ही नहीं थी |
मिष्टी ने कुछ कहने को मुंह खोला कि अमोल ने टोक दिया – “ अब इस घर में रहने के लिए हम अपना खान पान तो नहीं बदल सकते न ? “
और वो मिष्टी का हाथ पकड़ कर बाहर निकल गया |
दोनों उदास मन से आँगन पार करने लगे.......मिष्टी बगीचे में जाकर ठहर गयी और झुक कर थोड़े से हरसिंगार चुन लिए , जैसे कोई याद लिए जाना चाहती हो इस अनजान घर से |
वाकई पहली नज़र का प्यार क्या किसी से भी हो सकता है ? हरसिंगार के पेड़ वाले घर से भी ?

अय्यर्स के घर से बाहर निकल कर दोनों उसी कॉलोनी में टहलने लगे | मिष्टी चुप थी | कौन जाने चुप थी या खुद से बात कर रही हो.....बहला रही हो अपने मन को |
किसी और के दिए दिलासों से कहीं ज्यादा आसान होना अपने आप को समझाना |
आखिर हम खुद से ज्यादा और किसके करीब होते हैं ?

मिष्टी बचपन से ऐसी ही थी | जो चीज़ उसे भाती वो उसे पाने की जिद्द ठान लेती, और न मिलने पर उदास हो जाती, घंटों बात न करती | वो जो करना चाहती वो करके ही रहती है....
अजीब खब्ती किस्म की लड़की हो यार तुम ...अमोल उसे अक्सर छेड़ता !
मगर मन की इतनी निश्छल थी कि उदासियों के बादल छटते ही खुद-ब- खुद खिल जाती, इन्द्रधनुष की तरह | जैसा नाम वैसा मन था उसका – एकदम मीठा | मिस्री की तरह साफ़ सफ़ेद लड़की , जो ज़रा में घुल-मिल जाती सबके साथ | यूँ ही तो सबकी चहेती नहीं थी वो |
मगर आज उन चित्रा अय्यर आंटी ने तो सिरे से नकार दिया था उनको......उदास होना तो बनता ही था उसका |
यूँ ही टहलते टहलते अय्यर्स के ठीक सामने वाले घर पर अमोल की नज़र पड़ी , वहां भी बोर्ड लगा था – “मकान किराए से देना है |” साथ ही एक फोन नंबर भी लिखा था |
दोनों वहीं पुलिया में बैठ गए और अमोल ने नंबर घुमाया | मिलिट्री के किसी मेजर का नंबर था | बस पांच दस मिनिट के संवाद में ही पूरी बात तय हो गयी | किराया अमोल को सूट किया और अमोल की बातें उन्हें भा गयीं | पड़ोस के घर से चाभी लेकर वे कभी भी शिफ्ट हो सकते थे ऐसा मेजर साहब ने बताया | किराया हर माह बैंक में जमा करना था |
फोन रख कर अमोल ने मिष्टी को आँख मारते हुए कहा , लो भाई अब सामने से तुम मिसिस अय्यर को घूरती रहना और माछेर झोल की महक उन तक पहुंचाती रहना |
“अरे नहीं रे बाबा , अगर पड़ोसियों को ऐतराज़ हो तो  अब हम कम ही बनाया करेंगे माँस मच्छी , “ मिष्टी ने सरलता से कहा |
दो-चार दिन तो मियां बीवी को होश ही नहीं था , अपनी गृहस्थी सजाने में जुटे रहे दोनों | पड़ोसी भी भले लोग थे , दोनों वक्त का चाय नाश्ता पहुँचा जाते थे | काम करते करते मिष्टी सामने के घर पर नज़र डालती और एक आह भर कर फिर सामान जमाने लगती |
हँस पड़ता अमोल उसकी नादानी पर | मिष्टी की मासूमियत पर प्यार आ जाता उसे |
“उदास मत हो , हम इस घर में भी एक हरसिंगार का पौधा लगा लेंगे बारिशों में ,” वो दिलासा देता अपनी बावली बीवी को |
यूँ ही दिन गुज़र रहे थे | अमोल सुबह दस बजे निकल जाता शाम छः सात बजे ही लौटता | टिफ़िन साथ ले जाता | सारा काम सुबह ही निपटा कर मिष्टी एक दम खाली हो जाती | वो दिन भर बालकनी में बैठी कवितायें कहानियाँ पढ़ती या पेंटिंग करती | वो माहिर थी मधुबनी पेंटिंग्स बनाने में | उसकी उँगलियों में जादू था | वो सभी को तोहफों में अपनी बनाई पेंटिंग ही भेंट करती, पाने वाला निहाल हो जाता | कभी-कभी वो अपनी पेंटिंग्स आर्ट गैलरी में नीलाम करती और पैसा अनाथ आश्रम में दे आती | ऐसा करके मिष्टी का मन संतुष्टि से भर जाता |
मिष्टी के भीतर कहीं एक चंचल लड़की थी तो कहीं एक गंभीर और समझदार औरत भी |
मिष्टी और अमोल को त्रिची आये कोई तीन महीने बीत चुके थे | आस पास के सारे दर्शनीय स्थल वे  देख चुके थे | नए लोग , नयी भाषा, वेशभूषा , खान-पान सबको बखूबी समझ लिया था दोनों ने और दिन मज़े में गुज़र रहे थे |
इतने दिनों में कई बार मिसिस अय्यर  दिखीं और मिष्टी ने मुस्कुराते हुए नमस्कार भी किया मगर उन्होंने रूखा सा “नमस्कारम” कहकर मुंह मोड़ लिया |
इस औरत की प्रॉब्लम क्या है ? अमोल कभी कभी चिढ़ जाता |
रिवाज़ों से जकड़ी हुईं है बस | देखने में तो भली लगती हैं , कौन जाने उनके ऐसे व्यवहार की कोई वजह हो | मिष्टी उनकी बेवजह वकालत करते हुए कहती |
“तुम उनका इतना पक्ष क्यूँ लेती हो.....वो तुम्हें अपने घर कभी एक कदम भी नहीं रखने देने वाली हैं मिष्टी मोजुमदार , बंगालन !! अमोल ने ठहाका लगाते हुए कहा.....
एक रोज़ बातों बातों में पड़ोसन ने मिष्टी को बताया कि मिसिस अय्यर की एक चौदह-पंद्रह साल की बेटी है जो न सुन सकती है न बोल सकती है | चार पांच साल की थी तभी एक सर्जरी के बाद से ऐसा हो गया | तबसे उन्होंने कहीं आना जाना, लोगों से मिलना जुलना बंद कर दिया |
उनका व्यवहार ऐसा हो गया है जैसे कोई हीनभावना से ग्रस्त इंसान का होता है |
बच्ची को पढाने भी कोई ट्यूटर घर आने लगे | अय्यर साहब ने वोलंटरी रिटायरमेंट ले लिया और घर बैठ गए | अब शायद पैसों की कुछ तंगी महसूस हुई होगी इसलिए किरायदारों का सोचा होगा |

पड़ोसन की बात मिष्टी के मन में बार बार गूंजती रही , बल्कि हथौड़े की तरह उसे चोट पहुंचाती रही |

इंसान अपनी कमियों को दूर करने की जगह उनको छिपाने का प्रयास क्यूँ करता है आखिर ! सबसे श्रेष्ठ जीव होते हुए भी हताशा इंसानों में सबसे ज्यादा देखी जाती है | मिष्टी के विचार जाने कहाँ कहाँ दौड़ते रहे .............
संयोग से अगले दिन ही घर के बाहर मिसेस अय्यर और उनके साथ एक लड़की दिखी , जिसे देखते ही मिष्टी समझ गयी कि ये उनकी बेटी है | बड़ी बड़ी आँखों और घने लम्बे बालों वाली प्यारी सी लड़की थी वो |
“ नमस्कारम आंटी “ मिष्टी ने मुस्कुराते हुए कहा |
वे भी हौले से मुस्कुराईं , या ये मिष्टी की खुशफ़हमी भी हो सकती थी | क्यूंकि वे जल्दी से घर के भीतर जाने लगीं | मिष्टी ने बच्ची को देख कर हाथ हिला दिया |
मिष्टी को अपनी मुस्कराहट के बदले उस बच्ची की खिलखिलाहट सुनने मिली.....वो मिष्टी को देख कर जोर जोर से हाथ हिला रही थी और हंसती जा रही थी | मां बेटी के भीतर चले के बाद भी मिष्टी बड़ी देर तक वहीं खड़ी  हाथ हिलाती रही ........
“कैसा अन्याय है ये देवी मां तुम्हारा ! “ मिष्टी बुदबुदाई....... इतनी प्यारी बच्ची को ऐसा अधूरापन दे डाला ! बिना दुखों और अभावों के सृष्टि की रचना नहीं की जा सकती थी क्या ? – मिष्टी बेहद भावुक और उदास हो गयी |
मगर आने वाले दिन उतने उदास नहीं थे | मिसेस अय्यर की बेटी अब अक्सर बालकनी में निकल आती और मिष्टी को देखकर हाथ हिलाती |
मिष्टी भी अपना हाथ हिलाती......
फिर वे दोनों इशारों में बात करते |
“ओह ! ये लड़की तो करीब भी आयी तो बात इशारों में ही होगी......” इस ख़याल से ही मिष्टी अनमनी हो जाती, उसका सुन्दर चेहरा बुझ सा जाता मानों सूरज के ढलने के बाद पंखुडियां समेट ली हों कमल ने|
एक रोज़ मिष्टी बाहर बगीचे में बैठी थी कि पीछे से उसकी आँख किसी ने बंद कर दी......मिष्टी उन नन्हें हाथों को पकड़ कर सामने लायी तो चौंक पडी वो..... मिसेस अय्यर की बेटी थी |
तुम ? तुम यहाँ कैसे आयीं ? जाओ, जल्दी जाओ यहाँ से वरना तुम्हारी माँ गुस्सा हो जायेंगी |
मिष्टी बोलते बोलते रुक गयी........ओ माँ , मैं तो भूल ही गयी कि ये सुन नहीं सकती |
लड़की मुस्कुराती रही , फिर उसने पास पड़ी टेबल से कागज़ और पेन उठाया और मिष्टी को थमा दिया...
तुम यहाँ क्यूँ आयीं , माँ नाराज़ होंगी ! मिष्टी ने लिखा .....
मुझे आप अच्छी लगती हो......माँ सो रही हैं | उस बच्ची ने जवाब दिया |
थोड़ी देर इसी तरह मिष्टी और वो आपस में सवाल जवाब करते रहे | जैसे कोई इम्तेहान हो.....एक सरल सा इम्तेहान, जिसके सभी जवाब दोनों को आते हों |
बच्ची ने बताया उसका नाम बुलबुल है |
बुलबुल जो गा नहीं सकती.....मिष्टी की आँखें बरस पडीं |
उस रोज़ संध्या आरती के समय उसका ध्यान पूजा में ज़रा भी नहीं लगा......आज वो भगवान से भी खफा थी |

अब बुलबुल कभी कभी आने लगी थी मिष्टी के पास | वो बड़े जतन से मिष्टी को पेंटिंग्स बनाते देखती | एक दिन एक कोरे कागज़ पर बुलबुल ने बहुत प्यारी मछली बनाई और मिष्टी को दे दी.....बहुत ही सुन्दर ड्राइंग थी वो, मिष्टी देखती रह गयी...... फिर अचानक उसने कागज़ पर लिखा माँ और मछली के चित्र को काट डाला | मिष्टी बुलबुल का चेहरा देखने लगी फिर दोनों ज़ोरों से हंस पड़ी |
बुलबुल बहुत अच्छी कलाकार थी , मिष्टी ने उसके हुनर को पहचान लिया था |
मिष्टी के घर बुलबुल का आना यूँ ही जारी रहा | वो कभी भी अचानक आ धमकती , शायद जब भी वो अपनी माँ से नज़रें बचा कर आ पाती , आ जाती थी | वो बमुश्किल पंद्रह बीस मिनिट ही रुकती और उनकी बातें रेखाचित्रों के माध्यम से ही होती | और बुलबुल में कमाल की अभिव्यक्ति क्षमता थी | 
मिष्टी कुछ इशारे करने की कोशिश करती तो वो अनदेखा कर जाती और उसकी तरफ कागज़ बढ़ा देती , जैसे उसे मज़ा आ रहा हो इस खेल में | हाँ खेल ही तो था ये उसके लिए |  बस इस बहाने बेहतरीन स्केचिंग करते थे दोनों |
मिष्टी को बुलबुल का यूँ छिप छिप कर आना ठीक नहीं लगता था तो एक दिन वो अचानक अय्यर्स के घर पहुँच गयी |
बाहर के कमरे में ही दोनों मियां बीवी और बच्ची बुलबुल बैठे हुए थे | उसे देखते ही वे तीनों ही चौंक पड़े | और चौंकने के लिए सबके पास अपने अपने कारण थे | उनमें से कोई कुछ कहता इसके पहले ही मिष्टी बोल पड़ी |
“ आंटी आप शायद जानती नहीं मगर बुलबुल कभी कभी मेरे घर आती है | “ मुझे उसका आना बहुत अच्छा लगता है मगर वो आपकी इजाज़त लेकर आये तो मुझे खुशी होगी | “
ये सुनते ही चित्रा अय्यर की भौंहें तन गयीं, उन्होंने इशारों से बुलबुल को डपटना शुरू किया | ये देख मिष्टी उनके बीच में आकर खड़ी हो गयी |
“आप ये क्या कह रही हैं ? मैंने उसे मछली खिलाई होगी ?”  मिष्टी की आवाज़ में गुस्सा और दुःख दोनों था |
 “ इतनी नादान नहीं हूँ मैं आंटी , और आपके रीति रिवाज़ और संस्कारों की इज्ज़त करती हूँ  | ”
मिष्टी की आवाज़ रुन्धने लगी थी |
श्रीमती अय्यर ने हैरानी से मिष्टी की ओर देखा ! “ तुम कैसे समझीं कि मैंने क्या कहा ? “ उन्होंने पूछा !
जब से बुलबुल से मिली हूँ थोडा बहुत समझने लगी हूँ, मिष्टी ने झिझकते हुए कहा |
मिसिस अय्यर के तने हुए चेहरे में ज़रा सी नरमी आयी | मगर आवाज़ अब भी वैसी ही थी , एक दम सख्त !
“देखिये मुझे पसंद नहीं कि मेरी बेटी किसी से मिले जुले , फिर जब मैंने आपको किरायेदार के रूप में ही नहीं स्वीकारा तो बुलबुल से दोस्ती के लिए कैसे विश्वास कर सकती हूँ | “
“आप बेशक मेरे बारे में कोई भी राय रखें मगर आप इस मासूम को क्यूँ इस तरह एकांतवास की सजा दे रही हैं ? आप उसे स्कूल नहीं भेजतीं , किसी से मिलने नहीं देतीं , आखिर क्यूँ ? “ मिष्टी का चेहरा सुर्ख लाल हो गया था, और वो आवेष से काँप रही थी |
बिना कुछ कहे मिसिस अय्यर भीतर चली गयीं और मिष्टी हारे हुए मन से घर लौट आयी |

उस दिन बुलबुल भी शायद बिना सुने इतना तो समझ ही गयी थी कि उसके मिष्टी के घर आने-जाने को लेकर ही बहस छिड़ी है |
मगर वो बच्ची क्या करती !
बस यूँ ही आती रही चुपके चुपके और पेंटिंग्स बनाती रही खामोशी से |

मिष्टी बेचैन रहती.......
तो एक दिन बुलबुल के वहां रहते हुए ही उसने मिसिस अय्यर को फोन करके बुला लिया |
धुन की बड़ी पक्की थी मिष्टी , और उसूलों की भी........अनूठा व्यक्तित्व था इस लड़की मिष्टी का |
मिसेज़ अय्यर के आते ही उसने वही अधूरी बहस छेड़ दी |
“आप बुलबुल को यूँ दुनिया से काट कर अच्छा नहीं कर रहीं है आंटी

मैं अपनी बेटी का अच्छा – बुरा जानती हूँ.....
मेरी बेटी दुनिया के और लोगों जैसी नहीं है न इसलिए.....
मिसिस अय्यर धीरे से बुद्बुदायीं.....
“लोग उसकी कमी का चर्चा करें ये मुझसे सहन न होगा.....”

मिष्टी उनकी सोच पर हैरान थी , मगर जानती थी कि ये एक माँ की ओर से बेटी को पहनाया गया सुरक्षा कवच है और कुछ नहीं....
आंटी आपने कभी सुना है कि किसी ने हेलेन केलर या बीथोवेन की कमियों की चर्चा की है ? मिष्टी ने बड़े स्नेह से कहा.....
मिष्टी ने उन्हें बुलबुल की बनाई पेंटिंग्स दिखाई |
आंटी आपकी लड़की में असाधारण प्रतिभा है.....इसे खिलने दीजिये | इस पर और मुझ पर यकीन कीजिये....
मिसिस अय्यर ने एक गहरी सांस भरी जैसे कुछ कहने की शक्ति जुटा रही हों |
मन जब उलझनों से घिरा रहता है तब शब्द भी कहीं उलझ से जाते हैं, मानो हलक से बाहर निकलने को राज़ी न हों.....खुद से ही संघर्ष करता है मन | और जिसमें कभी हार होती है और कभी जीत.....

उन्होंने बस इतना ही कहा – बुलबुल चाहे तो कभी कभार थोड़ी देर को तुम्हारे घर आ सकती है मगर उसको अपनी तरह मत बना देना तुम |
मेरी तरह याने ? मिष्टी ने पूछना चाहा मगर चुप रह गयी | कई बार पूर्वाग्रह से ग्रस्त इंसान को यूँ ही छोड़ देना बेहतर होता है जिससे उसे वक्त और मौका मिले अपनी सोच बदलने का |
अब बुलबुल नियम से मिष्टी के पास आने लगी | वो रोज़ थोड़े से हरसिंगार चुन कर ले आती और मिष्टी निहाल हो जाती | खुश होने के लिए दरअसल बहुत थोड़े की ज़रुरत होती है |
मिष्टी उसको मधुबनी पेंटिंग की बारीकियां सिखाने लगी | ईश्वर ने एक ओर तो उस प्यारी लड़की को बोलने सुनने से मोहताज़ रखा था मगर दूसरी ओर उसको कला की बेहतरीन समझ दी थी | ऊपरवाला हिसाब का बड़ा पक्का जो ठहरा |
बुलबुल ज़्यादातर मछलियाँ बनाती , न जाने कितने रंगों की छोटे बड़ी मछलियाँ | मिष्टी खूब हंसती |
तुम्हारी माँ मुझे मार डालेगी बुलबुल, यूँ मछलियाँ न बनाया कर हमेशा , मिष्टी उसे प्यार से उलाहना देती |
जवाब में बुलबुल ने लिखा – मछलियाँ मुझे पसंद हैं क्यूंकि वो भी नहीं बोलती |
मिष्टी ने उसे बुलबुल बनाना भी सिखाया, कोयल और मोर भी |
मिष्टी बुलबुल के आर्टवर्क इकट्ठे करती जा रही थी | कलकत्ता की एक आर्ट गैलरी जो फोक आर्ट को बढ़ावा देती है और उसको सहेजने के सभी प्रयास करती है , वहां मिष्टी ने बात की और बुलबुल की कुछ पेंटिंग्स भेजी दीं |
जैसी उम्मीद थी वैसा ही हुआ......अब बुलबुल की पेंटिंग्स प्रदर्शिनी में जाने वाली थीं |
एक्सिबिशन का नाम बुलबुल ने ही दिया “ मिष्टी मछली ” | मिष्टी और अमोल खूब हँसे उसकी इस मासूमियत पर | लोगों ने खूब पसंद किया बुलबुल की कला को.....और मनमाने दाम देकर खरीदा भी | मिष्टी जानती थी कि ये तो सिर्फ शुरुआत है......

*अब मिष्टी उदास नहीं होती |
*बुलबुल बेरोक-टोक मिष्टी के पास आती है |
*श्रीमती अय्यर ने उसे स्पेशल स्कूल भेजना शुरू कर दिया है |
*मिसिस अय्यर अब मिष्टी को देख कर खुल कर मुस्कुराती हैं और कभी कभी रसम – चावल भी     खिलाती हैं |
*मिष्टी के आँगन में भी बुलबुल का दिया हरसिंगार झरने लगा है |

अनुलता राज नायर


 


  
  
  

    

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दर्द का कोई आकार नहीं होता
दुःख का कोई रंग नहीं
महकती नहीं उदासियाँ 

मन के सारे भेद खोल देती है
एक आह !
उलझे बालों की लटें
कसी मुट्ठियाँ
और भिंचे दांत !!

उतरे चेहरे,
शिकन पड़ा हुआ माथा
पपडाए होंठ
आवाज़ की लर्जिश
और गुलाबी डोरों वाली आँखे
कर देती हैं चुगलियाँ !

वरना रंजो ग़म की दास्तानें यूँ सरेआम नीलाम न होतीं.....
~अनुलता ~

मेरी कहानी - शिवकन्या 92.7 big fm पर

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सुनिये मेरी लिखी कहानी -"शिवकन्या "नीलेश मिश्रा की जादुई आवाज़ में........
:-)

just click the link.. आप मेरी लिखी सभी कहानियां you tube पर सुन सकते हैं ! मेरा नाम और यादों का इडियट बॉक्स सर्च करें बस :-)

यादों के इडियट बॉक्स में - मेरी लिखी कहानी "शिवकन्या "


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"पेशावर"

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एक दर्द सा बहता आया है
कुछ चीखें उड़ती आयीं है
दहशत की सर्द हवाओं के संग
खून फिजां में छितराया है....

कुछ कोमल कोमल शाखें थीं
कुछ कलियाँ खिलती खुलती सीं
एक बाग़ को बंजर करने को
ये कौन दरिंदा आया है ?

हैरां हैं हम सुनने वाले
आसमान भी गुमसुम है,
कतरा कतरा है घायल
हर इक ज़र्रा घबराया है.....

टूटे दिल और सपने छलनी
इक खंजर पीठ पे भोंका है
घुट घुट बीतेंगी अब सदियाँ
ज़ख्म जो गहरा पाया है....

 11 जनवरी 2014 दैनिक भास्कर "रसरंग "में प्रकाशित
http://epaper.bhaskar.com/magazine/rasrang/211/11012015/mpcg/1/

world book fair

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इस बार "विश्व पुस्तक मेला "देखने दिल्ली जाना हुआ.....
अपने पहले काव्य संग्रह "इश्क़ तुम्हें हो जाएगा "को प्रकाशक "हिन्दयुग्म"के स्टाल पर सजा हुआ देखने का अपना ही सुख था... कुछ प्रिय पाठकों  को हस्ताक्षरित प्रति देते समय जो अनुभूति हुई वो अविस्मर्णीय है!

काव्य संग्रह इन्फीबीम और अमेज़न में उपलब्ध है...

http://www.infibeam.com/Books/ishq-tumhen-ho-jayega-hindi-anulata-raj-nair/9789381394861.html

http://www.amazon.in/Ishq-Tumhen-Jayega-Anulata-Nair/dp/9381394865/ref=pd_rhf_pe_p_img_1

मेले में बहुत से ब्लॉगर और फेसबुक से जुड़े मित्रों से मिलना हुआ....साहित्यिक गतिविधियों का आनंद लिया |
अब अगले बरस के इंतज़ार में.....






लड़कियाँ

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हंसती हुई लड़कियों के भीतर
उगा होता है एक दरख़्त
उदासियों का,
जिनमें फलते हैं दर्द
बारों महीने...
और ठहरी हुई उदास आँखों वाली
लड़कियों के भीतर
बहता है एक चंचल झरना
मीठे पानी का...

आसमान की ओर तकती लड़कियों में
नहीं होती एक भी ख्वाहिश
एक भी उम्मीद ,
कि उसने नाप रखी है
अपने मन से
क्षितिज तक की दूरी....
और पलकें झुकाए
अंगूठे से ज़मीन कुरेदती लड़की
दरअसल
बुन रही होती है एक साथ
कई कई रूपहले सपने
मन ही मन में
गुपचुप गुपचुप|
सिले हुए होंठों वाली लड़कियां
गुनगुनाती हैं
नहीं सुनाई पड़ने वाले
एकाकी प्रेम गीत
जिन्हें वे खुद ही गुनती हैं, खुद ही सुनती है...
और सड़कों पर उतरीं
नारे लगाती,विरोध करती , चिल्लाती लड़कियां
होती हैं एकदम ख़ामोश !
इनके भीतर पसरा होता है एक निर्वात
कि उनकी आवाज़ कहीं तक पहुँचती नहीं !!
लड़कियां नायिकाएं नहीं होती....
कहानियों का सबसे झूठा किरदार होती हैं लड़कियां !!
~अनुलता ~

आप सभी के ब्लॉग पर अपनी अनुपस्थिति के लिए क्षमा चाहती हूँ....उम्मीद है अब इतने बड़े अंतराल न होंगे....

~संवेदनाएं खोलतीं सुख के द्वार~

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आज एक उदास दिन था.....
 कि मन की उदासियों को ज़रा आराम मिला....जब शाम को मार्च कीअहा ! ज़िन्दगीहाथ में आयी!
इस बार की अहा! ज़िन्दगी की थीम थी जीवन में सुख की सीढियाँ !
और एक सूत्र "संवेदना"की बागडोर पत्रिका ने  हमारे हाथ में सौपीं.
आप भी पढ़िए अहा! ज़िन्दगी में प्रकाशित मेरा आलेख !!
~संवेदनाएं खोलतीं सुख के द्वार~
महान कवि "एडगर एलन पो "के मुताबिक सौन्दर्य जब अपने चरमोत्कर्ष पर होता है तब हर संवेदनशील आत्मा,निरपवाद रूप से उत्तेजित और भावुक होकर रो पड़ती है | और इसका सीधा कारण है सुख की पराकाष्ठा का अनुभव !
अर्थात संवेदना हमारे जीवन में सुख का सहज कारण बनती है और हमें रूहानी तृप्ति प्रदान करती है | जैसे रंग और खुशबू के प्रति संवेदनशील तितली फूल से मधु पीकर तृप्त होती है |
संवेदनाएं मनुष्य को सुन्दर और सरल बनाती हैं,प्रेम करने का अवसर देती है जो स्वतः सुख का कारण है |
मिसाल के तौर पर यदि हम प्रकृति की ओर संवेदनशील हैं तो अपने आस पास वृक्ष लगायेंगे,वाटिका में फूल रोपेंगे,और पर्यावरण की रक्षा करेंगे,और प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ये हमें ही सुखी करेगा | मन की ये संवेदना हमें आसमान की ओर तकने का,तारे गिनने का, चाँद और हरसिंगार पर कविता रचने का सुख देती है |

इसी तरह समाज के प्रति संवेदना हमें सभ्य बनाती है | किसी सामाजिक कार्य को करके,वृद्धाश्रमों और अनाथालयों में अपनी सेवाएँ देकर मनुष्य अपार सुख पाता है और इस सुख की लालसा उसे बेहतर इंसान बनाती है | इस बात को मदर टेरेसा या बाबा आमटे के जीवन से समझा जा सकता है |
मानव में संवेदना का गुण ही  उसे परिवार की ओर अग्रसर है, वो संतानोत्पत्ती करता है और जीवन भर बच्चों के पालन-पोषण,उनके भविष्य को सुरक्षित करके सुख पाता है | यहाँ उसका कोई स्वार्थ नहीं होता | वैसे ही पशुओं में भी यही प्रवृत्ति देखी जा सकती है |नेह के पुष्प संवेदना की डोर से ही जुड़ कर रिश्तों की माला बनाते हैं |

संगीत एक ऐसी विधा है जो सबको अपनी ओर खींचती है, मगर जो संगीत के प्रति संवेदनशील हैं वही महान संगीतज्ञ बने और इसकी साधना कर सुखी हुए | जैसे बाँस की पोली नली को फूंक कर आग तो कोई भी प्रज्वलित कर सकता है मगर इसी पोले बाँस को बांसुरी के रूप में विकसित कर अद्भुत तान छेड़ कर अपनी आत्मा को सुख के सागर में डुबोने की संवेदना और क्षमता सबमें नहीं होती | हर कलाकार का संवेदनशील होना बहुत ज़रूरी है | कला निश्चित तौर पर रूहानी और जज़्बाती सुख देती है | 
महान संगीतकार "जैसन मरज़ "के कहा है- दुःख की लड़ाई में संगीत सबसे बड़ा हथियार है,और संवेदनाएं ही मनुष्य को कला की ओर झुकाती हैं और अंततोगत्वा सुखी करती हैं | 

कुछ लोग स्वयं के प्रति भी संवेदनशील होते है और दूसरे उनके बारे में क्या सोचते हैं,क्या कहते हैं इसकी उन्हें फ़िक्र रहती हैं इसलिए वे  अपने बाहरी रंग-रूप,सेहत और बोल-चाल भाषा का बहुत ख़याल रखते हैं | ऐसे लोग आत्म-मुग्ध या नार्सिसिस्ट कहे जा सकते हैं मगर ये अपने आप में सुखी और संतुष्ट होते हैं |
इसी तरह मनुष्य अपनी संस्कृति के प्रति संवेदनशील रहता है विशेष रूप से हम भारतीय,जो अपनी संस्कृति को पूर्वजों की धरोहर के रूप में सहेजे रखना चाहते हैं | हम आज भी हमारे शास्त्रों के मुताबिक कार्य करते हैं ,जैसे बीमार व्यक्ति के लिए क्या पथ्य है क्या अपथ्य, कौन से कार्य कब किये जाएँ, ये घर में नानी- दादी तय करतीं हैं और जो फायदेमंद भी है और सुखकर भी | वैसे ही हमारी ईश्वर के प्रति आस्था, हमारा तीज- त्योहारों को मनाना आदि भी हमारी संवेदनशीलता का प्रतीक है और ये हमारे नीरस जीवन को विभिन्न रंगों से भरता है | दूसरे धर्मों के प्रति संवेदनशीलता हमें एक दूसरे के करीब लाती है और एक बेहतर इंसान होने का गर्व हम स्वयं पर कर सकते हैं | 

इस मिथ्याबोध को हटाना होगा कि संवेदनशीलता मानसिक दुर्बलता है | दरअसल ये प्रेम,दया,आदर और खुशी जैसे भावों को लेने और देने का एक दोतरफ़ा मार्ग है |
चार्ल्स डिकेंस कहते हैं "मैं सहृदय और संवेदनशील लोगों के बारे में इतना सोचता हूँ कि उन्हें कभी आहत नहीं कर सकता |"और सचमुच ये बहुत सुखद अनुभूति है |
अनुलता राज नायर


अंगूरी बादल.............

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अंगूरी हो रक्खे थे बादल
उस रोज़,
गहरे नीले आकाश में
गुच्छा गुच्छा छितरे
जमुनी गुलाबी रंगत लिए
धूसर बादल....

तुमने कहा
ये बादल
तुम्हारे आंसुओं की वाष्प से बने हैं !
मैंने मान लिया था उस रोज़
कि तुम दुनिया की
सबसे दुखी लडकी थी |

वो बड़ी स्याह रात थी
तूफानी,
खूब बरसे थे वो बादल
गुलाबी जमुनी रंगत वाले
काले बादल....

तुम्हारा कहा परखने को
चखी थी मैंने
कुछ बूँदें...
सचमुच खारी थीं|

तुमने सही कहा था
कि मैं दुनिया का सबसे बुरा आदमी हूँ !
मैंने मान लिया था उस रोज़
बिना ख़ुद को परखे हुए !
~अनुलता ~






बुझती आँखों के वास्ते........

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“शेल सिल्वरस्टीन” की एक प्रसिद्द कविता है – जो संवाद है एक बच्चे और बुज़ुर्ग के बीच |
बच्चा कहता है – मैं खाते वक्त कभी चम्मच गिरा देता हूँ|
बुज़ुर्ग कहता है - मैं भी
बच्चा फुसफुसाता है - मैं कभी अपनी पैंट गीली कर देता हूँ |
बुज़ुर्ग- मैं भी
बच्चा- मैं रोता हूँ
बुज़ुर्ग- मैं भी
बच्चा- मगर बड़े मुझ पर ध्यान नहीं देते
बुज़ुर्ग अपना झुर्रियों वाला हाथ बच्चे के हाथ में रख कहता है- हाँ मैं समझ सकता हूँ तुम क्या कहना चाहते हो |

“बुढ़ापा बचपन की पुनरावृत्ति होता है” मगर ये ऐसा बचपन है जिसमें ऊर्जा नहीं है,सकारात्मक सोच का अभाव है और असुरक्षा का भाव बच्चों से कई गुना अधिक | इसलिए इन्हें बच्चों से कहीं ज्यादा देखभाल और स्नेह ही आवश्यकता है | अक्सर बुजुर्गों को ये कहते सुना जा सकता है कि अब हमें क्या चाहिए- बस दो वक्त की रोटी ! पर यकीन मानिए कि वृद्धावस्था में इन्हें दो रोटी भले एक मिले पर दो पल स्नेह के मिल जाएँ तो इनका जीवन आसान हो जाय| मगर ये गिने चुने दो पल भी कहाँ हैं आज बच्चों के पास ? और यही है सबसे बड़ी समस्या आजकल बुजुर्गों की | यूँ तो हमारा समाज माँ-बाप को ईश्वर का दर्ज़ा देता है मगर हमारे देश में ही सबसे अधिक बुज़ुर्ग तिरस्कृत और एकाकी जीवन व्यतीत करने पर मजबूर हैं ,विशेषकर बुज़ुर्ग औरतें |
जीवन के चौथे पहर में अकेलापन सबसे बड़ा अभिशाप है विशेषकर महिलाओं के लिए,क्यूंकि एक तो वे स्वभाव से ही संवेदनशील हैं और आरम्भ से उन्हें किसी न किसी पुरुष पर निर्भर रहने की आदत होती है| पहले पिता फिर भाई,पति और अंत में बेटों के बिना वे जीवन की कल्पना नहीं कर सकतीं,खासतौर पर मध्यमवर्गीय परिवारों में | अशिक्षित महिलाओं की हालत तो और भी बद्तर है |
हमारे समाज में शुरू से स्त्रियों को दोयम दर्ज़ा दिया गया है और अगर वे नौकरीपेशा हैं तब भी परिवार की ज़िम्मेदारी का बोझ उन पर डाल कर उन्हें केयर-टेकर बना दिया जाता है| और जब वे खुद दूसरों पर निर्भर रहने की स्थिति में आती हैं तब अपनों के द्वारा ही बोझ समझ ली जाती हैं |

आसान नहीं है एक औरत का अकेले रहना | बाज़ार हाट से सामान लाना,अस्पताल के चक्कर,बिजली पानी के बिल जमा करना ऐसी कई समस्याएं हैं जिनका उन्हें सामना करना पड़ता है| ऐसी औरतें अपराधियों के लिए भी आसान टार्गेट होती हैं | इसके अलावा जो भावनात्मक समस्या है वो सबसे बड़ी है | परिवार को जोड़े रखने वाली कड़ी को जब स्वयं एकाकी जीवन जीना पड़े तो उसका अवसाद में घिर जाना स्वाभाविक है | औरतें माँ बनते ही नानी दादी बनने के ख्वाब भी देखने लगती हैं और ऐसे में नाती पोतों से दूरियाँ उन्हें दुःख देती हैं | कभी दादी नानी से किस्से-कहानियां सुनकर उनकी गोद में सोने वाले बच्चे आज हेड-फोन लगाए सीने पर मोबाइल रख कर सोते हैं तो फिर आखिर बुजुर्गों की आवश्यकता ही क्या हुई घर में |
एक सर्वे के मुताबिक़ हमारे देश में शहरी इलाके में रहने वाले हर छः में से एक वृद्ध को पर्याप्त पोषण नहीं मिलता है और हर तीन में एक को दवाइयां और चिकित्सा सेवा उपलब्ध नहीं है| और 21.2% वृद्ध महिलायें अकेले रहने पर मजबूर हैं | स्थिति बेहद शर्मनाक और चिंतनीय है और जिसके ज़िम्मेदार आज की युवा पीढ़ी है | एक समाचार में पढने में आया कि अकेले रहने वाली वृद्धा एक सुबह अचेतन अवस्था में पायी गयीं और कोमा में चली गयी | वजह सिर्फ इतनी थी कि परिजनों द्वारा उनकी डाइबिटीज़ की दवाई की पूर्ती समय पर नहीं की गयी थी | क्या ऐसी उपेक्षा और लापरवाही झेलने के लिए ही माँ बच्चों को जन्म देती है,पालती पोसती है ? 

ढलती उम्र में अकेले रहने में एक सबसे बड़ी समस्या है स्वास्थ की | महिलायें परिवार की देखभाल करते करते अपने पोषण का ध्यान नहीं करती और फिर आर्थराइटिस ,हाइपरटेंशन,स्तन कैंसर ,एनीमिया आदि बीमारियों से अकेले जूझती हैं | तो सबसे आवश्यक है कि औरतें वक्त रहते चेतें और अपना ख्याल रखें |
बेशक अकेले रहना आसान नहीं है मगर अगर औरतें शुरू से जागरूक रहें तो आनेवाली कई समस्याओं से उबर सकती हैं | पहले तो यदि औरत स्वयं नहीं कमाती हैं तो उनके पति या पिता का फ़र्ज़ है कि उनके नाम पर पैसा जमा किया जाय,यथासंभव ज़मीन,मकान और गहने उनके नाम किये जाएँ जिससे उनका भविष्य सुनिश्चित हो सके | महिलाओं को भी चाहिए कि वे बैंकिंग सीखें,अपना लॉकर ऑपरेट करना ,एटीम से पैसे निकालना आदि काम स्वयं,बिना किसी की मदद के करना सीखें | इस तरह वे अपने साथ होने वाली धोखाधड़ी से बची रह सकेंगी |
युवा पीढ़ी को समझाइश दी जानी चाहिए कि बुजुर्गों को स्नेह और सामान दिया जाय मगर औरतों को भी उनके अधिकारों का ज्ञान होना चाहिए और उनके भीतर आत्मनिर्भर होने की हिम्मत जगनी चाहिए | आस-पास की सभी ऐसी औरतें जो अकेली हैं, एकजुट होकर एक दूसरे का ख्याल रखें, मिलकर वे नियमित रूप से डॉक्टरी चेकअप के लिए और किसी धार्मिक स्थल की यात्रा पर भी जा सकती हैं | साथ मिल कर वे किसी पुस्तकालय की सदस्य बन जाएँ ,ये एक स्वास्थ और सस्ता मनोरंजन होगा और उनका वक्त भी आसानी से कट जाएगा |
सरकार के पास भी अकेली रहने वाली औरतों ,निराश्रित विधवाओं के लिए योजनाएं हैं जिनका लाभ वे ले सकती हैं | कई किस्म की रियायतें और सुविधाएं भी सरकार देती है | बच्चों के द्वारा देखभाल पाना माता-पिता का हक़ है | मगर हमारे देश में तकरीबन छः करोड़ वृद्ध महिलायें हैं जिनमें से कई एकाकी जीवन जीने को बाध्य हैं |
घर में अकेले रहने से बेहतर है कि महिलायें वृद्धाश्रमों में रहें | वहां उनका ध्यान रखने वाले लोग होंगें,बातचीत करने को संगी साथी और वहां वे सुरक्षित भी होंगी |  
सबसे ज्यादा आवश्यक है उनका स्वयं के प्रति विश्वास और जीवन जीने की ललक , फिर क्या संभव नहीं | एक बुज़ुर्ग शिक्षिका को मैं व्यक्तिगत रूप से जानती थी जो अतिसंपन्न परिवार से थीं पर अकेली रहती थीं और उनका एक हाथ भी नहीं था| यदाकदा कभी बिजली का मीटर देखने जैसे अटपटे कामों के अलावा उन्होंने कभी किसी से मदद नहीं ली | स्वयं पर विश्वास ही उनका संबल रहा होगा |
वर्तमान स्थिती बेहद कष्टदायी है | समाज से और युवावर्ग से एक अपील है कि वे समझें कि स्त्रियाँ दैहिक रूप से ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी पुरुषों से भिन्न हैं | उन्हें ज्यादा प्रेम और साथ की आवश्यकता है | बच्चों को इस बात का एहसास हो कि जड़ों को सिंचित किये बिना वृक्ष कैसे हरा रहेगा,कैसे पल्लवित और पुष्पित होगा | अपने बुजुर्गों के टिमटिमाते दिए की लौ को अपनी हथेलियों की आड़ दीजिये , जिससे सदा रोशन रहे आपका आँगन भी |  

-अनुलता- 

  

Article 21

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वो पूरे चाँद सा चेहरा

जिसे मैं छू सकती थी

हाथ बढ़ा कर कभी भी....

और महसूस कर सकती थी

अपनी उँगलियों पर

उन गालों की नरमाई,

नर्म जैसे बादल !

और वो मुस्कराहट

खनकती हंसीं......

जैसे किसी ने खोल दी हो

अपनी अशर्फियों भरी पोटली

या बिखर गयें हो किसी के हाथ से पूजा के फूल....

वो कोमल स्पर्श, आवाज़ की खनक और स्नेह की सौंधी महक का एहसास अब भी जिंदा है.....

बस बिखेर रही हूँ आज

ढेर सा हरसिंगार

तुम्हारी तस्वीर के आगे.

अनु

(दुःख कभी बीतता नहीं....दिन बीतते हैं, और दुःख शायद उनकी परतों के नीचे कहीं पलता रहता है ख़ामोशी से.....)
अंजलि दीदी के जन्मदिन पर ...उनको याद करते हुए !!
4/4/2013

चुप्पी

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चुप थे तुम
जब पूछा था लोगों ने
मेरा तुम्हारा रिश्ता...

चुप लगा जाते हैं लोग
अक्सर यूँ ही
कि वो एक सुरक्षा कवच है उनका !

गूंगी हो जाती है रात
जब चीखती है कोई बेबस..
चुप रहता है समाज
सिसकियाँ सुन कर भी !

बादलों के फट जाने पर
सवाल करती हैं लाशें...
और मौन रहता है आसमान |

खामोश रहते वृक्ष
पत्तों को तजने के बाद,
अनसुना करते हैं
चरमराते,सरसराते सूखे पत्तों की  चीख |

रिश्तों पर लगी घुन है
ख़ामोशी |
चुप्पी लील जाती है
मन का विश्वास !

चुप रह जाता है प्रेम...
जब वो प्रेम नहीं रहता !!
~अनुलता ~


कसम

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रख कर हाथ
नीले चाँद के सीने पर
हमने खायीं थीं जो कसमें
वो झूठी थीं |

मुझे लगा तुम सच्चे हो,
तुम्हें यकीन था मुझ पर....

इसलिए तो खाई जाती हैं कसमें

अपने अपने झूठ पर
सच की मोहर लगाने को !

~अनुलता ~
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